विषय केंद्रित किताबों को पढ़ना मुद्दों की गहराई के प्रति आपकी समझ विकसित करने में हमेशा सहायक रहता है। इसी क्रम में अगर हम बात करें शिक्षा पर आधारित पुस्तकों की तो हाल ही में दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया की रचित "शिक्षा" निश्चित रूप से प्रत्येक व्यक्ति को पढ़नी चाहिए।
यह एक तथ्य है कि शिक्षा को लेकर हमारे देश में संभवतः उतना ध्यान नहीं दिया गया है, जितना दिया जाना चाहिए और उसका नतीजा यह हुआ है कि आजादी के तकरीबन 7 दशक बाद भी हम कई सारी समस्याओं में उलझे पड़े हैं।
यह किताब इस मायने में भी पढ़ी जानी चाहिए क्योंकि यह कोई हाइपोथेटिकल बुक नहीं है, बल्कि उन प्रयोगों के बारे में इस किताब में आपको जानकारी मिलेगी जिसे ग्राउंड पर आजमाया गया है और लगातार आजमाया जा रहा है। वैसे भी दिल्ली सरकार की शिक्षा-नीति की चर्चा बड़ी तेजी से फैली है।
न केवल भारत में बल्कि नेपाल, बांग्लादेश, भूटान सहित अमेरिका इत्यादि पश्चिमी देशों में भी दिल्ली की शिक्षा-नीति को भिन्न मंचों पर जगह मिली है।
यह बात कहने और मानने में हमें लाग-लपेट नहीं होना चाहिए कि दिल्ली सरकार और खासकर उसके उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने उस भारत में शिक्षा पर पुरजोर ध्यान देने की हिम्मत की है, जहां वोट बैंक की पॉलिटिक्स के कारण इस मुद्दे पर गहराई से कोई ध्यान देने का साहस नहीं कर पाता है।
जाहिर है शिक्षा में आप जो भी ध्यान देते हैं, जितना भी इन्वेस्टमेंट करते हैं, वह तुरंत परिणाम देने वाला नहीं होता है। जबकि सब्सिडी से लेकर तमाम चुनावी घोषणाएं सीधे तौर पर वोटर्स को आकर्षित करती हैं। यूं बदले समय में वोटर्स के बीच जागरूकता भी बढ़ी है और यही कारण है कि दिल्ली की शिक्षा नीति की प्रशंसा चारों ओर हो रही है।
हाल ही में यह किताब मैंने ऑनलाइन ऑर्डर किया और पढ़ने में यह इतनी रोचक, प्रभावी और व्यवहारिक लगी कि कब 187 पृष्ठ की यह बुक समाप्त हो गई, पता ही नहीं चला!
दिल्ली सरकार के टीचर्स को समर्पित यह पुस्तक मुख्यतः दो भागों में लिखी गई है।
पहला भाग 'शिक्षा के आधार' में मनीष सिसोदिया ने बजट, इंफ्रास्ट्रक्चर, प्रिंसिपल, शिक्षक, मेंटर, टीचर और माता-पिता के साथ किए गए दिल्ली के सरकारी स्कूलों में प्रयोगों को विस्तार से बताया है।
वहीं दूसरा भाग 'शिक्षा, एक आधार' में कॉन्सेप्ट पर फोकस करते हुए जीवन विद्या शिविर, हैप्पीनेस क्लास, एंटरप्रेन्योरशिप माइंडसेट करिकुलम और भविष्य में आने वाली योजनाओं पर फोकस है।
यह पुस्तक वस्तुतः वर्तमान समय में शिक्षा के क्षेत्र में तीन बड़े सिद्धांतों को मूल रूप से चुनौती देती है। मनीष सिसोदिया का मानना है कि अगर हमने जाने-अनजाने लोगों द्वारा स्वीकार कर लिए गए इन 3 सिद्धांतों को चुनौती नहीं दी तो फिर शिक्षा के उद्देश्यों को वास्तविक रूप में पा लेना असंभव ही रहेगा। निश्चित रूप से जब आप इस किताब को पढ़ेंगे तो आपको प्रतीत होगा कि मनीष सिसोदिया की बात में दम भी है और चुनौती देने का साहस भी।
यह तीन गलतियां जो मनीष ने पुस्तक में बताया है, उनमें से पहला है 'इकोनॉमिक्स में एडम स्मिथ का स्टेटमेंट' जिसमें वह कहते हैं कि साधन सीमित किंतु आवश्यकताएं असीमित हैं। मनीष कहते हैं कि शिक्षा में यह सिद्धांत बेहद घातक सिद्ध हुआ है और इसको उन्होंने विस्तार से साबित भी किया है।
इसी प्रकार दूसरे नम्बर पर उन्होंने मशहूर साइंटिस्ट 'डार्विन के सिद्धांत' जिसमें वह 'सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट' यानी योग्यतम की उत्तरजीविता का वर्णन करते हैं उसको भी शिक्षा व्यवस्था के लिए बेहद घातक बताया है।
तीसरे सिद्धांत के रूप में साइकोलॉजी के पिता कहे जाने वाले 'फ्रायड के अनुसार - मनुष्य जो कुछ भी करता है वह कामवासना से प्रेरित है', इसको मनीष ने चुनौती देने की कोशिश की है।
यह किताब पढ़ेंगे तो आपको कहीं ना कहीं अब प्रतीत होगा कि यह तीन मान्यताएं लोगों के मन मस्तिष्क में गहरे तक बैठी हुई हैं और यही वह कारण है कि शिक्षा अपने उद्देश्यों को ठीक ढंग से पूरा नहीं कर पा रही है। यकीन मानिए, यह किताब पढ़ते हुए आपको मनीष के साहस और दर्शन की दाद देनी पड़ेगी। सवाल यह है कि हम कोई भी चीज करते हैं, तो उसका उद्देश्य कहीं गलत दिशा में तो नहीं चला जाता है... यह पुस्तक इस प्रश्न को संजीदगी से उठाती है।
क्रमवार अगर इस पुस्तक का वर्णन करें तो मनीष सिसोदिया दिल्ली में हुए शिक्षा के प्रयोगों को एक उम्मीद बताते हुए गर्व करते हैं। उनका कहना है कि आज दिल्ली में सैकड़ों सरकारी स्कूलों में अभिभावक अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूल की तुलना में अधिक तरजीह दे रहे हैं। जाहिर तौर पर एक बड़ा बदलाव है और इसमें आपको अतिशयोक्ति भी नहीं माननी चाहिए।
लेकिन यह लक्ष्य हासिल करने के लिए मनीष सिसोदिया सरकारी स्कूलों के टीचर्स के काम पर निगरानी रखने, उन्हें अधिक समय तक स्कूल में रहने, ट्रेनिंग देने और जवाबदेही तय करने को बेहद मुश्किल बताया है, साथ ही इसे राजनीतिक रूप से नुकसानदायक भी बताया है। हालाँकि, वह साफ़ कहते हैं कि राजनीतिक नुक्सान की परवाह करने की बजाय उन्होंने शिक्षा पर 'मिशन मोड' में कार्य करने के लिए सभी संबंधित पक्षों को तैयार करने में खुद को झोंक दिया है।
भूमिका में ही मनीष ने साफ कर दिया है कि देश में तमाम सरकारों और शिक्षाविदों ने बेहतर काम किया है और देश में शिक्षा को एक मौलिक अधिकार के रूप में भी शामिल किया गया है। लेकिन दिल्ली का जो शिक्षा मॉडल है उसमें उन 95% बच्चों की शिक्षा पर ध्यान दिया जा रहा है, जो रेस में पीछे छूट जाते हैं।
मतलब जो बच्चे तमाम कारणों के फलस्वरूप प्राइवेट स्कूलों की सुविधाएं नहीं ले सकते, जो समाज इतना जागरुक नहीं है... उसके ऊपर दिल्ली सरकार ध्यान दे रही है।
आगे बढ़ते हुए मनीष इस बात को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि दिल्ली सरकार ने पिछले 4 सालों से शिक्षा का बजट तकरीबन 25% तक रखा हुआ है। और इसे भाषणों तक ही सीमित नहीं रखा है, बल्कि भाषणों से आगे बढ़कर इंफ्रास्ट्रक्चर जिसमें स्कूलों की बालकनी, कमरे, क्लासरूम इत्यादि की जानकारी लेकर उसका डाटा एनालिसिस करके प्रॉपर ढंग से व्यवस्थित किया गया है।
बहरहाल इन कमियों से पार पाते हुए मनीष ने इस लक्ष्य की तरफ ध्यान केंद्रित करने की कोशिश की है जिसमें शिक्षा की गुणवत्ता की न्यूनतम सीमा तय हो जाए। मतलब साफ है कि किसी बच्चे को आप कितनी अधिक और कितनी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देना चाहते हैं इसकी कोई सीमा नहीं है... वह हो भी नहीं सकती है, लेकिन न्यूनतम मानक सभी व्यक्तियों के लिए, सभी विद्यार्थियों के लिए निश्चित रूप से तय होना चाहिए।
स्कूल के इंफ्रास्ट्रक्चर पर वार लेवल पर काम करने को मनीष इसलिए जायज ठहराते हैं ताकि सरकारी स्कूलों में आने वाला बच्चा प्राइवेट स्कूलों की तुलना में हीन भावना का शिकार ना हो! ज़ाहिर है कि अगर इन्वायरमेंट सही नहीं होगा, इंफ्रास्ट्रक्चर सही नहीं होगा तो फिर बहुत मुश्किल से बच्चा उसमें आएगा और आ भी गया तो उसके प्रति रूचि शायद ही व्यक्त कर पाएगा।
इस किताब में क्रमवार ढंग से मनीष 'प्रिंसिपल' को एजुकेशन लीडर के रूप में किस प्रकार से बदला गया है... इस पर अपने प्रयासों को बतलाते हैं। इसके लिए प्रिंसिपल को बजट उपलब्ध करना और उसे छोटे-मोटे कार्यों के लिए स्वायत्त बनाना शामिल है।
इसे एक उदाहरण से कुछ यूं समझा जा सकता है कि स्कूल-प्रबंधन के लिए पहले प्रिंसिपल को मात्र 5000 तक ही डायरेक्ट खर्च करने की इजाजत थी। इसका कारण यह बताया जाता था कि प्रिंसिपल कहीं पैसे में गड़बड़ी न करें। मनीष का कहना है कि अगर एक प्रिंसिपल 50 से 100 टीचर्स की टीम हैंडल करता है... इतनी बड़ी ह्यूमन रिसोर्स को यूटिलाइज करने की कोशिश करता है तो उसे सिर्फ ₹5000 खर्च करने की इजाजत देना अपने आप में बेवकूफाना है।
जाहिर तौर पर उसे पर्याप्त आर्थिक-प्रशासनिक निर्णय लेने की छूट होनी चाहिए!
इसी क्रम में दिल्ली सरकार द्वारा स्टेट मैनेजर के कांसेप्ट पर प्रयोग किया गया। साथ ही प्रिंसिपल को 2 टीचर का ट्रांसफर करने का अधिकार दिया गया, ताकि अपने स्कूल में वह व्यवस्था बनाए रख सके। इसके अतिरिक्त बाहर-विदेशों की दुनिया को देखने, उनके एजुकेशन सिस्टम को समझने के लिए दिल्ली सरकार द्वारा व्यवस्था की गई।
इतना ही नहीं आईआईएम -अहमदाबाद के साथ मिलकर दिल्ली के सरकारी स्कूलों के प्रिंसिपल के लिए विशेष स्कूल लीडरशिप प्रोग्राम तैयार कराया गया। जाहिर तौर पर यह सब बड़े इनीशिएटिव थे। इसके अलावा फिनलैंड के ट्रेनिंग प्रोग्राम को भी दिल्ली सरकारी स्कूल के प्रिंसिपल को समझने का अवसर दिया गया।
निश्चित रूप से यह बेहद सराहनीय कार्य है और जब तक किसी भी स्कूल का हेड यानी प्रिंसिपल एक एजुकेशन लीडर के तौर पर व्यवहार नहीं करेगा, तब तक यह मानना असंभव है कि कोई भी स्कूल बेहतर ढंग से कार्य कर सकेगा।
इसके बाद शिक्षकों के ऊपर किए गए अपने प्रयोगों को मनीष सिसोदिया इस किताब में विस्तार से बताते हैं। वह इस सिद्धांत को मानने से इनकार करते हैं कि शिक्षक सिर्फ एक सीमित ज्ञान को अगली पीढ़ी तक पहुंचाने का मानव संसाधन भर है।
शिक्षकों की समस्याओं को किस तरीके से मनीष सिसोदिया ने समझा इसके लिए आपको यह पुस्तक पढ़नी पड़ेगी। तकरीबन 400 से 500 शिक्षकों के साथ अलग-अलग मीटिंग में मनीष सिसोदिया ने शिक्षकों की समस्याओं को सुलझाने की समझ विकसित की, जिसमें दिल्ली के स्कूलों में डेस्क से लेकर बोर्ड तक की समस्याएं शामिल थे। मनीष इस बात को भी उद्धृत करते हैं कि प्राइवेट स्कूलों की तरह सरकारी स्कूलों में भी अच्छे स्टाफ रूम, फ्रीज, कॉफी इत्यादि की सुविधा देने के लिए वह प्रतिबद्ध हैं।
जाहिर तौर पर टीचर को अगर सम्मान नहीं मिलेगा तो फिर किसी हालत में शिक्षा अपने इस उद्देश्य को नहीं प्राप्त कर सकती जो कोई भी समाज वास्तव में शिक्षा से चाहता है।
'मेंटर टीचर' के प्रयोग को मनीष बेहद गौरव से बताते हैं। दुनिया भर के देशों में किस प्रकार से शिक्षकों कीमेंटरिंग होती है और किस प्रकार से उनको ट्रेनिंग दी जाती है, इसके आधार पर कई शिक्षकों के टेस्टिमोनियल को मनीष ने अपनी इस किताब में रोचक ढंग से शामिल किया है।
शिक्षकों के अनुभव को पढ़ते हुए निश्चित रूप से आपको इस कार्यक्रम की महत्ता का अंदाजा हो पाएगा।
इससे बच्चों में आत्मविश्वास की कमी, परिवार के साथ उनका सामंजस्य इत्यादि समस्याओं से निपटने में काफी सहयोग मिला, इस बात को बताना यह किताब नहीं भूलती है। इसके अतिरिक्त दूसरे शिक्षकों की सोच... जो बदलाव नहीं करना चाहते थे और एक तरह से 'ऑर्थोडॉक्स' की तरह बने रहना चाहते थे, उन पर भी कार्य करने में काफी मदद मिली।
परामर्शदाता शिक्षक (Mentor-Teacher) निश्चित रूप से एक बेहतर प्रयोग है। शिक्षक भी जहां रूटीन पढ़ाई, यूनिट और एनुअल एग्जामिनेशन के साथ-साथ एक निश्चित प्रक्रिया में ढल जाते हैं, उन्हें भी इससे काफी सहयोग मिला है। अतः कई परामर्शदाता शिक्षक यानी 'मेंटर टीचर' पूरी शिक्षा को सीखने वाले के नजरिए से देखने लगे हैं।
कई टीचर्स में से एक अमित शर्मा जो परामर्शदाता शिक्षक के रूप में अपने अनुभव को बताते हैं वह कहते हैं कि मेंटरशिप कार्यक्रम के कारण स्कूल के स्टाफ रूप में होने वाली गपशप अब पढ़ने के तौर-तरीकों और विषयों की गहराई को लेकर होने वाली बातचीत में बदल गई है। अब टीचर लर्निंग लेवल को सुधारने की बात सोचने लगे हैं, उसे इम्प्लेमेंट करने लगे हैं।
मनीष बताते हैं कि शुरू में अध्यापक इस कार्यक्रम से थोड़े असहज ज़रूर हुए कि एक ही स्कूल में बाहर का कोई दूसरा अध्यापक उनकी कक्षा में हस्तक्षेप कैसे करेगा? लेकिन बाद के दिनों में यह चीजें सकारात्मक होती चली गयीं।
इसके बाद माता-पिता के रोल के ऊपर मनीष सिसोदिया बात करते हैं। निश्चित रूप से किसी भी विद्यार्थी की शिक्षा उसके घर के माहौल और माता-पिता की सक्रियता और श्रद्धा के बिना पूरी नहीं हो सकती। मनीष सिसोदिया स्कूल और माता पिता के बीच उस सेतु की बात करते हैं जिसमें स्कूल मैनेजमेंट कमेटी (SMC) को सक्रिय करने का बड़ा प्रयोग शामिल है।
प्राइवेट स्कूलों तक में स्कूल मैनेजमेंट कमेटी कितना और क्या कार्य करती है यह लाखों पेरेंट्स को पता नहीं होगा जबकि सरकारी स्कूल में शिक्षा मंत्री शिक्षा मॉडल की सफलता का श्रेय 'एसएमसी' को देने में संकोच नहीं करते हैं। बल्कि वह यहां तक इस किताब में कहते हैं कि उनके लिए आंख, नाक और कान के रूप में 'एसएमसी मेंबर्स' ने काम किया है। अपने प्रयोगों के बारे में बताते हुए कहते हैं कि SMC को कई सारे अधिकार भी दिए गए हैं और इसका सकारात्मक फायदा नजर आया है।
'मेगा पीटीएम' का उल्लेख करना मनीष नहीं भूलते हैं। वह इस बात से इस चैप्टर की शुरुआत करते हैं कि बहुत सारे अभिभावक अपने जीवन में बच्चों के स्कूल के अंदर तक नहीं जा सके थे, अपने बच्चों के बारे में टीचर्स से फीडबैक का आदान-प्रदान तो दूर की कौड़ी थी!
इसके लिए बड़े स्तर पर हर तीन-चार महीने बाद मेगा पीटीएम (Mega PTM) का प्रयोग बेहद सफल रहा। मेगा पीटीएम को लेकर अखबार, रेडियो-एफ.एम. के माध्यम से बड़े स्तर पर जागरूकता फैलाई जाती है। निश्चित रूप से इस जागरूकता का फायदा दूरगामी है और यह नजर भी आया है।
अपने किताब के दूसरे भाग 'शिक्षा, एक आधार' में जीवन विद्या शिविर बेहद रोचक और दार्शनिक अंदाज में लिखा गया है। लेकिन यह किसी कहानी की तरह आपको प्रतीक नहीं होगा बल्कि व्यावहारिक लगेगा। समस्या का समाधान खोजना इसका मुख्य उद्देश्य आपको नजर आएगा। इसकी चर्चा करते हुए वो बताते हैं कि किस प्रकार से वह शुरू में ही शिक्षा-विभाग की पूरी टीम के साथ तकरीबन 8 दिन तक वह दिल्ली से दूर छत्तीसगढ़ के एक गांव में बैठकर इसी बात पर विचार करते रहे कि शिक्षा का वर्तमान मॉडल जो प्रतियोगिता वादी मॉडल है... उससे कैसे पार पाया जाए।
यह बात तो हम सब को ज्ञात है कि वर्तमान मॉडल में पढ़ने वाले प्रत्येक छात्र को एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ बनी रहती है।
इसकी बजाए सह-अस्तित्व मूलक शिक्षा मॉडल के कांसेप्ट की मनीष ने बात की है। इसमें भी हालाँकि, प्रतियोगिता जरूर है लेकिन यह खुद से प्रतियोगिता करने को प्रेरित करता है।
निश्चित रूप से यह बेहद रोचक अध्याय है और आपको इसको अवश्य पढ़ना चाहिए।
यह बच्चे को स्वयं पर विश्वास करना सिखाता है। साथ ही बच्चे को स्वस्थ रहना सिखलाता है। परिवार में समृद्धि के साथ जीना और संबंधों में सामंजस्यता के साथ जीने की व्यवस्था में अपनी उपयोगिता के साथ भागीदारी कैसे करें इस को डिवेलप करने पर यह मॉडल जोर देता है। मनीष कहते हैं कि इस मॉडल में शिक्षित आदमी का ज्ञान दूसरे का अधिक शोषण की योग्यता पर आधारित नहीं है जो सामान्यतः वर्तमान-शिक्षा में व्याप्त है।
किताब के अंत में 'हैप्पीनेस क्लास' के प्रयोग का ज़िक्र आप को रोमांचित कर देगा। यह मॉडल प्राइवेट स्कूल्स भी अपनाने की दिशा में बढ़ रहे हैं। तकरीबन 8,000,00 छात्रों को रोजाना एक हैप्पीनेस का पीरियड देने का मॉडल आपको अवश्य ही समझना चाहिए।
इसमें कई सारे उदाहरण दिए गए हैं। मनीष क्लियर करते हैं कि हैप्पीनेस की क्लास केवल नैतिक शिक्षा की क्लास नहीं है और ना ही यह ऐसी ही कुछ एक्टिविटीज की क्लास भर है। इसकी बजाय यह इमोशनल साइंस और पुरातन भारतीय चिंतन एवं शिक्षण के अनुभव को जोड़ कर तैयार किया गया है। इसमें माइंडफुलनेस मेडिटेशन, प्रेरक मगर वैज्ञानिक कहानियों के माध्यम से बच्चों को जिम्मेदार और परिपक्व को बनाने की बात कही गयी है। ऐसी ही एक्टिविटीज आधारित चर्चा का वैज्ञानिक अध्ययन पर आधारित पक्ष ज्यादा इंपॉर्टेंट रखा गया है।
मतलब यह पूरी एक्टिविटी वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित है। आपको इस चेप्टर को अवश्य ही पढ़ना चाहिए क्योंकि तमाम पश्चिमी देशों में भी माइंडफुलनेस मेडिटेशन इत्यादि अनिवार्य हिस्से बनाए जा चुके हैं।
जाहिर तौर पर एक ही जगह पर एक ही परिस्थिति में कार्य कर रहे तीन लोगों का नजरिया अलग है और यह मनुष्य की मनः स्थिति को सटीकता से वर्णित करता है। मनीष बताते हैं कि इन कहानियों के माध्यम से बच्चों के सामने विभिन्न परिस्थितियां रखी जा सकती हैं, ताकि वह उसे परख सके ना कि केवल आदर्शवादी बातें बता कर उन पर महानता थोपने की कोशिश की जानी चाहिए। जाहिर तौर पर यह बेहद बारीक प्रयोग है और अगर इसी अनुरूप कोर्सेज और करिकुलम चलते रहते हैं, अपडेट होते रहते हैं तो निश्चित रूप से इसके बेहतर परिणाम आएंगे। इसी प्रकार रिश्ते और संबंधों के आधार पर कई सारी कहानियां और एक्टिविटीज शामिल की गई हैं।
इसके अलावा यहाँ भावनात्मक आवश्यकताओं के आधार पर बच्चों से अलग-अलग एक्टिविटीज कराई जाती हैं। निश्चित रूप से 'हैप्पीनेस क्लास' एक बेहद सटीक उदहारण है और इसकी चर्चा ना केवल देश में बल्कि 2017 के मास्को में हुए 'अंतरराष्ट्रीय शिक्षा सम्मेलन' में भी मनीष ने इसका जिक्र किया था। अपने उस अनुभव को मनीष ने किताब में संजोया है।
इसका उदाहरण देते हुए मनीष बताते हैं कि अगर एंटरप्रेन्योरशिप कोर्स का सिर्फ यही अर्थ निकाला जाए कि बच्चों को सिर्फ व्यवसाई बनाना है तब एक बच्चा जो साइंटिस्ट बनना चाहता है उसको यह मदद नहीं कर पाएगा। ऐसे में एंटरप्रेन्योरशिप एटीट्यूड का मतलब यह है कि बच्चा चाहे जॉब करे, चाहे जॉब दे.... पर वह पूरी जिम्मेदारी के साथ बेहतर दृष्टिकोण से उस कार्य को अंजाम दे। मुझे लगता है कि इसमें बहुत बारीक तरीके से ध्यान दिया जाना चाहिए, क्योंकि तभी यह कार्यक्रम सफल होगा और तभी बेहतर ढंग से इसका परिणाम भी आएगा।
किताब के अंत में आगे के दृष्टिकोण और आगे की योजनाओं पर भी मनीष चर्चा करते हैं जिसमें 10% टीचर्स बेंच पर रखने की बात मनीष कहते हैं, ताकि छुट्टी इत्यादि की स्थिति में बच्चों का अध्ययन प्रभावित न हो! इसके अलावा 'हैप्पीनेस' और 'एंटरप्रेन्योरशिप माइंडसेट' करिकुलम की तरह 'देशभक्ति या नागरिकता' पाठ्यक्रम शुरू करने की अपनी योजना का भी मनीष जिक्र करते हैं।
इसके अलावा वर्तमान सिलेबस को लगभग आधा करने की बात वह करते हैं, दिल्ली में शिक्षा विभाग के ढांचे में परिवर्तन की बात करते हैं। इसके अतिरिक्त परीक्षा प्रणाली में परिवर्तन, शिक्षा बोर्ड का गठन इत्यादी अपनी योजनाओं को मनीष सिसोदिया ने इस किताब के अंतिम हिस्से में बतलाया है। साथ ही शिक्षकों की ट्रेनिंग के लिए टीचर ट्रेनिंग यूनिवर्सिटी अप्लायड साइंस यूनिवर्सिटी, स्पोर्ट्स यूनिवर्सिटी की अपनी योजनाओं को मनीष सिसोदिया ने विस्तार से इस किताब में बतलाया है।
बहुत सारी किताबें हम और आप पढ़ते हैं, लेकिन प्रयोगों पर आधारित वैज्ञानिकता के साथ रची गई किताबें बहुत कम मिलती हैं। मनीष सिसोदिया के द्वारा रचित और पेंग्विन बुक्स द्वारा पब्लिश यह किताब आपके मन मस्तिष्क को रोमांचित करेगी, इस बात में कोई दो राय नहीं है।
आप इस बात के लिए प्रेरित होंगे कि क्या वाकई शिक्षा इतनी इंपॉर्टेंट है जो विश्व में व्याप्त आतंकवाद, ग्लोबल वार्मिंग और दूसरी तमाम समस्याओं से निजात दिला सकेगी?
वास्तव में सच्चाई तो यही है कि शिक्षा सभी समस्याओं को सॉल्व कर सकती है, लेकिन उसे डिवेलप करने का नजरिया कितना विस्तृत है, कितना विजनरी है यह बहुत इंपॉर्टेंट है। आखिर, जैसा बीज आप डालेंगे, वैसा पौधा आपको नज़र आएगा!
आपको इस किताब में निश्चित रूप से विजन देखने को मिलेगा और संभवतः सुधार का दृष्टिकोण रखने वाले लोगों को इस किताब के माध्यम से एक नई ऊर्जा भी प्राप्त होगी... इस बात में दो राय नहीं है!
दिल्ली के माननीय उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया को इस व्यावहारिक पुस्तक की रचना के लिए हृदय से धन्यवाद दिया जाना चाहिए।
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Web Title: Shiksha by Manish Sisodia, Book Review in Hindi
यह एक तथ्य है कि शिक्षा को लेकर हमारे देश में संभवतः उतना ध्यान नहीं दिया गया है, जितना दिया जाना चाहिए और उसका नतीजा यह हुआ है कि आजादी के तकरीबन 7 दशक बाद भी हम कई सारी समस्याओं में उलझे पड़े हैं।
अब आप कहेंगे कि समस्याओं का शिक्षा से क्या संबंध है तो आपके इसी प्रश्न का उत्तर यह किताब बखूबी देती है!
Shiksha by Manish Sisodia (Pic: mithilesh2020) |
यह किताब इस मायने में भी पढ़ी जानी चाहिए क्योंकि यह कोई हाइपोथेटिकल बुक नहीं है, बल्कि उन प्रयोगों के बारे में इस किताब में आपको जानकारी मिलेगी जिसे ग्राउंड पर आजमाया गया है और लगातार आजमाया जा रहा है। वैसे भी दिल्ली सरकार की शिक्षा-नीति की चर्चा बड़ी तेजी से फैली है।
न केवल भारत में बल्कि नेपाल, बांग्लादेश, भूटान सहित अमेरिका इत्यादि पश्चिमी देशों में भी दिल्ली की शिक्षा-नीति को भिन्न मंचों पर जगह मिली है।
यह बात कहने और मानने में हमें लाग-लपेट नहीं होना चाहिए कि दिल्ली सरकार और खासकर उसके उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने उस भारत में शिक्षा पर पुरजोर ध्यान देने की हिम्मत की है, जहां वोट बैंक की पॉलिटिक्स के कारण इस मुद्दे पर गहराई से कोई ध्यान देने का साहस नहीं कर पाता है।
जाहिर है शिक्षा में आप जो भी ध्यान देते हैं, जितना भी इन्वेस्टमेंट करते हैं, वह तुरंत परिणाम देने वाला नहीं होता है। जबकि सब्सिडी से लेकर तमाम चुनावी घोषणाएं सीधे तौर पर वोटर्स को आकर्षित करती हैं। यूं बदले समय में वोटर्स के बीच जागरूकता भी बढ़ी है और यही कारण है कि दिल्ली की शिक्षा नीति की प्रशंसा चारों ओर हो रही है।
हाल ही में यह किताब मैंने ऑनलाइन ऑर्डर किया और पढ़ने में यह इतनी रोचक, प्रभावी और व्यवहारिक लगी कि कब 187 पृष्ठ की यह बुक समाप्त हो गई, पता ही नहीं चला!
दिल्ली सरकार के टीचर्स को समर्पित यह पुस्तक मुख्यतः दो भागों में लिखी गई है।
पहला भाग 'शिक्षा के आधार' में मनीष सिसोदिया ने बजट, इंफ्रास्ट्रक्चर, प्रिंसिपल, शिक्षक, मेंटर, टीचर और माता-पिता के साथ किए गए दिल्ली के सरकारी स्कूलों में प्रयोगों को विस्तार से बताया है।
वहीं दूसरा भाग 'शिक्षा, एक आधार' में कॉन्सेप्ट पर फोकस करते हुए जीवन विद्या शिविर, हैप्पीनेस क्लास, एंटरप्रेन्योरशिप माइंडसेट करिकुलम और भविष्य में आने वाली योजनाओं पर फोकस है।
यह पुस्तक वस्तुतः वर्तमान समय में शिक्षा के क्षेत्र में तीन बड़े सिद्धांतों को मूल रूप से चुनौती देती है। मनीष सिसोदिया का मानना है कि अगर हमने जाने-अनजाने लोगों द्वारा स्वीकार कर लिए गए इन 3 सिद्धांतों को चुनौती नहीं दी तो फिर शिक्षा के उद्देश्यों को वास्तविक रूप में पा लेना असंभव ही रहेगा। निश्चित रूप से जब आप इस किताब को पढ़ेंगे तो आपको प्रतीत होगा कि मनीष सिसोदिया की बात में दम भी है और चुनौती देने का साहस भी।
यह तीन गलतियां जो मनीष ने पुस्तक में बताया है, उनमें से पहला है 'इकोनॉमिक्स में एडम स्मिथ का स्टेटमेंट' जिसमें वह कहते हैं कि साधन सीमित किंतु आवश्यकताएं असीमित हैं। मनीष कहते हैं कि शिक्षा में यह सिद्धांत बेहद घातक सिद्ध हुआ है और इसको उन्होंने विस्तार से साबित भी किया है।
इसी प्रकार दूसरे नम्बर पर उन्होंने मशहूर साइंटिस्ट 'डार्विन के सिद्धांत' जिसमें वह 'सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट' यानी योग्यतम की उत्तरजीविता का वर्णन करते हैं उसको भी शिक्षा व्यवस्था के लिए बेहद घातक बताया है।
तीसरे सिद्धांत के रूप में साइकोलॉजी के पिता कहे जाने वाले 'फ्रायड के अनुसार - मनुष्य जो कुछ भी करता है वह कामवासना से प्रेरित है', इसको मनीष ने चुनौती देने की कोशिश की है।
यह किताब पढ़ेंगे तो आपको कहीं ना कहीं अब प्रतीत होगा कि यह तीन मान्यताएं लोगों के मन मस्तिष्क में गहरे तक बैठी हुई हैं और यही वह कारण है कि शिक्षा अपने उद्देश्यों को ठीक ढंग से पूरा नहीं कर पा रही है। यकीन मानिए, यह किताब पढ़ते हुए आपको मनीष के साहस और दर्शन की दाद देनी पड़ेगी। सवाल यह है कि हम कोई भी चीज करते हैं, तो उसका उद्देश्य कहीं गलत दिशा में तो नहीं चला जाता है... यह पुस्तक इस प्रश्न को संजीदगी से उठाती है।
क्रमवार अगर इस पुस्तक का वर्णन करें तो मनीष सिसोदिया दिल्ली में हुए शिक्षा के प्रयोगों को एक उम्मीद बताते हुए गर्व करते हैं। उनका कहना है कि आज दिल्ली में सैकड़ों सरकारी स्कूलों में अभिभावक अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूल की तुलना में अधिक तरजीह दे रहे हैं। जाहिर तौर पर एक बड़ा बदलाव है और इसमें आपको अतिशयोक्ति भी नहीं माननी चाहिए।
लेकिन यह लक्ष्य हासिल करने के लिए मनीष सिसोदिया सरकारी स्कूलों के टीचर्स के काम पर निगरानी रखने, उन्हें अधिक समय तक स्कूल में रहने, ट्रेनिंग देने और जवाबदेही तय करने को बेहद मुश्किल बताया है, साथ ही इसे राजनीतिक रूप से नुकसानदायक भी बताया है। हालाँकि, वह साफ़ कहते हैं कि राजनीतिक नुक्सान की परवाह करने की बजाय उन्होंने शिक्षा पर 'मिशन मोड' में कार्य करने के लिए सभी संबंधित पक्षों को तैयार करने में खुद को झोंक दिया है।
भूमिका में ही मनीष ने साफ कर दिया है कि देश में तमाम सरकारों और शिक्षाविदों ने बेहतर काम किया है और देश में शिक्षा को एक मौलिक अधिकार के रूप में भी शामिल किया गया है। लेकिन दिल्ली का जो शिक्षा मॉडल है उसमें उन 95% बच्चों की शिक्षा पर ध्यान दिया जा रहा है, जो रेस में पीछे छूट जाते हैं।
मतलब जो बच्चे तमाम कारणों के फलस्वरूप प्राइवेट स्कूलों की सुविधाएं नहीं ले सकते, जो समाज इतना जागरुक नहीं है... उसके ऊपर दिल्ली सरकार ध्यान दे रही है।
आगे बढ़ते हुए मनीष इस बात को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि दिल्ली सरकार ने पिछले 4 सालों से शिक्षा का बजट तकरीबन 25% तक रखा हुआ है। और इसे भाषणों तक ही सीमित नहीं रखा है, बल्कि भाषणों से आगे बढ़कर इंफ्रास्ट्रक्चर जिसमें स्कूलों की बालकनी, कमरे, क्लासरूम इत्यादि की जानकारी लेकर उसका डाटा एनालिसिस करके प्रॉपर ढंग से व्यवस्थित किया गया है।
इसी क्रम में मनीष केंद्र सरकार के अधीन डीडीए यानी दिल्ली डेवलपमेंट अथॉरिटी के अंदर दिल्ली की जमीन होने के मामले को भी उठाते हैं। वह इस बात को किताब में लिखते हैं कि डीडीए दिल्ली सरकार को इसलिए जमीन नहीं देना चाहता है, क्योंकि प्राइवेट लोगों को जमीन बेचने पर उसे मुनाफा होता है और उसमें भ्रष्टाचार की भी संभावना रहती है।
बहरहाल इन कमियों से पार पाते हुए मनीष ने इस लक्ष्य की तरफ ध्यान केंद्रित करने की कोशिश की है जिसमें शिक्षा की गुणवत्ता की न्यूनतम सीमा तय हो जाए। मतलब साफ है कि किसी बच्चे को आप कितनी अधिक और कितनी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देना चाहते हैं इसकी कोई सीमा नहीं है... वह हो भी नहीं सकती है, लेकिन न्यूनतम मानक सभी व्यक्तियों के लिए, सभी विद्यार्थियों के लिए निश्चित रूप से तय होना चाहिए।
स्कूल के इंफ्रास्ट्रक्चर पर वार लेवल पर काम करने को मनीष इसलिए जायज ठहराते हैं ताकि सरकारी स्कूलों में आने वाला बच्चा प्राइवेट स्कूलों की तुलना में हीन भावना का शिकार ना हो! ज़ाहिर है कि अगर इन्वायरमेंट सही नहीं होगा, इंफ्रास्ट्रक्चर सही नहीं होगा तो फिर बहुत मुश्किल से बच्चा उसमें आएगा और आ भी गया तो उसके प्रति रूचि शायद ही व्यक्त कर पाएगा।
इस किताब में क्रमवार ढंग से मनीष 'प्रिंसिपल' को एजुकेशन लीडर के रूप में किस प्रकार से बदला गया है... इस पर अपने प्रयासों को बतलाते हैं। इसके लिए प्रिंसिपल को बजट उपलब्ध करना और उसे छोटे-मोटे कार्यों के लिए स्वायत्त बनाना शामिल है।
इसे एक उदाहरण से कुछ यूं समझा जा सकता है कि स्कूल-प्रबंधन के लिए पहले प्रिंसिपल को मात्र 5000 तक ही डायरेक्ट खर्च करने की इजाजत थी। इसका कारण यह बताया जाता था कि प्रिंसिपल कहीं पैसे में गड़बड़ी न करें। मनीष का कहना है कि अगर एक प्रिंसिपल 50 से 100 टीचर्स की टीम हैंडल करता है... इतनी बड़ी ह्यूमन रिसोर्स को यूटिलाइज करने की कोशिश करता है तो उसे सिर्फ ₹5000 खर्च करने की इजाजत देना अपने आप में बेवकूफाना है।
जाहिर तौर पर उसे पर्याप्त आर्थिक-प्रशासनिक निर्णय लेने की छूट होनी चाहिए!
इसी क्रम में दिल्ली सरकार द्वारा स्टेट मैनेजर के कांसेप्ट पर प्रयोग किया गया। साथ ही प्रिंसिपल को 2 टीचर का ट्रांसफर करने का अधिकार दिया गया, ताकि अपने स्कूल में वह व्यवस्था बनाए रख सके। इसके अतिरिक्त बाहर-विदेशों की दुनिया को देखने, उनके एजुकेशन सिस्टम को समझने के लिए दिल्ली सरकार द्वारा व्यवस्था की गई।
इतना ही नहीं आईआईएम -अहमदाबाद के साथ मिलकर दिल्ली के सरकारी स्कूलों के प्रिंसिपल के लिए विशेष स्कूल लीडरशिप प्रोग्राम तैयार कराया गया। जाहिर तौर पर यह सब बड़े इनीशिएटिव थे। इसके अलावा फिनलैंड के ट्रेनिंग प्रोग्राम को भी दिल्ली सरकारी स्कूल के प्रिंसिपल को समझने का अवसर दिया गया।
निश्चित रूप से यह बेहद सराहनीय कार्य है और जब तक किसी भी स्कूल का हेड यानी प्रिंसिपल एक एजुकेशन लीडर के तौर पर व्यवहार नहीं करेगा, तब तक यह मानना असंभव है कि कोई भी स्कूल बेहतर ढंग से कार्य कर सकेगा।
इसके बाद शिक्षकों के ऊपर किए गए अपने प्रयोगों को मनीष सिसोदिया इस किताब में विस्तार से बताते हैं। वह इस सिद्धांत को मानने से इनकार करते हैं कि शिक्षक सिर्फ एक सीमित ज्ञान को अगली पीढ़ी तक पहुंचाने का मानव संसाधन भर है।
शिक्षकों की समस्याओं को किस तरीके से मनीष सिसोदिया ने समझा इसके लिए आपको यह पुस्तक पढ़नी पड़ेगी। तकरीबन 400 से 500 शिक्षकों के साथ अलग-अलग मीटिंग में मनीष सिसोदिया ने शिक्षकों की समस्याओं को सुलझाने की समझ विकसित की, जिसमें दिल्ली के स्कूलों में डेस्क से लेकर बोर्ड तक की समस्याएं शामिल थे। मनीष इस बात को भी उद्धृत करते हैं कि प्राइवेट स्कूलों की तरह सरकारी स्कूलों में भी अच्छे स्टाफ रूम, फ्रीज, कॉफी इत्यादि की सुविधा देने के लिए वह प्रतिबद्ध हैं।
जाहिर तौर पर टीचर को अगर सम्मान नहीं मिलेगा तो फिर किसी हालत में शिक्षा अपने इस उद्देश्य को नहीं प्राप्त कर सकती जो कोई भी समाज वास्तव में शिक्षा से चाहता है।
'मेंटर टीचर' के प्रयोग को मनीष बेहद गौरव से बताते हैं। दुनिया भर के देशों में किस प्रकार से शिक्षकों कीमेंटरिंग होती है और किस प्रकार से उनको ट्रेनिंग दी जाती है, इसके आधार पर कई शिक्षकों के टेस्टिमोनियल को मनीष ने अपनी इस किताब में रोचक ढंग से शामिल किया है।
शिक्षकों के अनुभव को पढ़ते हुए निश्चित रूप से आपको इस कार्यक्रम की महत्ता का अंदाजा हो पाएगा।
इससे बच्चों में आत्मविश्वास की कमी, परिवार के साथ उनका सामंजस्य इत्यादि समस्याओं से निपटने में काफी सहयोग मिला, इस बात को बताना यह किताब नहीं भूलती है। इसके अतिरिक्त दूसरे शिक्षकों की सोच... जो बदलाव नहीं करना चाहते थे और एक तरह से 'ऑर्थोडॉक्स' की तरह बने रहना चाहते थे, उन पर भी कार्य करने में काफी मदद मिली।
यह बेहद सार्थक और सकारात्मक बात है कि कई बार अध्यापक सोचते हैं कि छात्र पढ़ नहीं सकते हैं। मनीष सिसोदिया बताते हैं कि छात्रों के प्रति अध्यापकों का यह दृष्टिकोण पूरी तरह से बदलने वाला है और इसकी मजबूत शुरुआत हो चुकी है।
परामर्शदाता शिक्षक (Mentor-Teacher) निश्चित रूप से एक बेहतर प्रयोग है। शिक्षक भी जहां रूटीन पढ़ाई, यूनिट और एनुअल एग्जामिनेशन के साथ-साथ एक निश्चित प्रक्रिया में ढल जाते हैं, उन्हें भी इससे काफी सहयोग मिला है। अतः कई परामर्शदाता शिक्षक यानी 'मेंटर टीचर' पूरी शिक्षा को सीखने वाले के नजरिए से देखने लगे हैं।
कई टीचर्स में से एक अमित शर्मा जो परामर्शदाता शिक्षक के रूप में अपने अनुभव को बताते हैं वह कहते हैं कि मेंटरशिप कार्यक्रम के कारण स्कूल के स्टाफ रूप में होने वाली गपशप अब पढ़ने के तौर-तरीकों और विषयों की गहराई को लेकर होने वाली बातचीत में बदल गई है। अब टीचर लर्निंग लेवल को सुधारने की बात सोचने लगे हैं, उसे इम्प्लेमेंट करने लगे हैं।
मनीष बताते हैं कि शुरू में अध्यापक इस कार्यक्रम से थोड़े असहज ज़रूर हुए कि एक ही स्कूल में बाहर का कोई दूसरा अध्यापक उनकी कक्षा में हस्तक्षेप कैसे करेगा? लेकिन बाद के दिनों में यह चीजें सकारात्मक होती चली गयीं।
इसके बाद माता-पिता के रोल के ऊपर मनीष सिसोदिया बात करते हैं। निश्चित रूप से किसी भी विद्यार्थी की शिक्षा उसके घर के माहौल और माता-पिता की सक्रियता और श्रद्धा के बिना पूरी नहीं हो सकती। मनीष सिसोदिया स्कूल और माता पिता के बीच उस सेतु की बात करते हैं जिसमें स्कूल मैनेजमेंट कमेटी (SMC) को सक्रिय करने का बड़ा प्रयोग शामिल है।
बताते चलें कि 'स्कूल मैनेजमेंट कमेटी' में कुल 16 मेंबर होते हैं जिनमें से 12 उसी स्कूल के बच्चों के गार्जियन होते हैं जबकि चार में से एक प्रधानाचार्य समिति के चेयरमैन होते हैं, तो संयोजक के रूप में शिक्षक होते हैं। एक विधायक प्रतिनिधि तथा एक सामाजिक कार्यकर्ता इस कमिटी में शामिल होते हैं। मनीष गर्व से इस बात को कहते हैं कि स्कूल मैनेजमेंट कमेटी ने दिल्ली के शिक्षा मॉडल को सफल बनाने में बेहद इंपॉर्टेंट रोल प्ले किया है।
प्राइवेट स्कूलों तक में स्कूल मैनेजमेंट कमेटी कितना और क्या कार्य करती है यह लाखों पेरेंट्स को पता नहीं होगा जबकि सरकारी स्कूल में शिक्षा मंत्री शिक्षा मॉडल की सफलता का श्रेय 'एसएमसी' को देने में संकोच नहीं करते हैं। बल्कि वह यहां तक इस किताब में कहते हैं कि उनके लिए आंख, नाक और कान के रूप में 'एसएमसी मेंबर्स' ने काम किया है। अपने प्रयोगों के बारे में बताते हुए कहते हैं कि SMC को कई सारे अधिकार भी दिए गए हैं और इसका सकारात्मक फायदा नजर आया है।
'मेगा पीटीएम' का उल्लेख करना मनीष नहीं भूलते हैं। वह इस बात से इस चैप्टर की शुरुआत करते हैं कि बहुत सारे अभिभावक अपने जीवन में बच्चों के स्कूल के अंदर तक नहीं जा सके थे, अपने बच्चों के बारे में टीचर्स से फीडबैक का आदान-प्रदान तो दूर की कौड़ी थी!
इसके लिए बड़े स्तर पर हर तीन-चार महीने बाद मेगा पीटीएम (Mega PTM) का प्रयोग बेहद सफल रहा। मेगा पीटीएम को लेकर अखबार, रेडियो-एफ.एम. के माध्यम से बड़े स्तर पर जागरूकता फैलाई जाती है। निश्चित रूप से इस जागरूकता का फायदा दूरगामी है और यह नजर भी आया है।
अपने किताब के दूसरे भाग 'शिक्षा, एक आधार' में जीवन विद्या शिविर बेहद रोचक और दार्शनिक अंदाज में लिखा गया है। लेकिन यह किसी कहानी की तरह आपको प्रतीक नहीं होगा बल्कि व्यावहारिक लगेगा। समस्या का समाधान खोजना इसका मुख्य उद्देश्य आपको नजर आएगा। इसकी चर्चा करते हुए वो बताते हैं कि किस प्रकार से वह शुरू में ही शिक्षा-विभाग की पूरी टीम के साथ तकरीबन 8 दिन तक वह दिल्ली से दूर छत्तीसगढ़ के एक गांव में बैठकर इसी बात पर विचार करते रहे कि शिक्षा का वर्तमान मॉडल जो प्रतियोगिता वादी मॉडल है... उससे कैसे पार पाया जाए।
यह बात तो हम सब को ज्ञात है कि वर्तमान मॉडल में पढ़ने वाले प्रत्येक छात्र को एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ बनी रहती है।
इसकी बजाए सह-अस्तित्व मूलक शिक्षा मॉडल के कांसेप्ट की मनीष ने बात की है। इसमें भी हालाँकि, प्रतियोगिता जरूर है लेकिन यह खुद से प्रतियोगिता करने को प्रेरित करता है।
निश्चित रूप से यह बेहद रोचक अध्याय है और आपको इसको अवश्य पढ़ना चाहिए।
यह बच्चे को स्वयं पर विश्वास करना सिखाता है। साथ ही बच्चे को स्वस्थ रहना सिखलाता है। परिवार में समृद्धि के साथ जीना और संबंधों में सामंजस्यता के साथ जीने की व्यवस्था में अपनी उपयोगिता के साथ भागीदारी कैसे करें इस को डिवेलप करने पर यह मॉडल जोर देता है। मनीष कहते हैं कि इस मॉडल में शिक्षित आदमी का ज्ञान दूसरे का अधिक शोषण की योग्यता पर आधारित नहीं है जो सामान्यतः वर्तमान-शिक्षा में व्याप्त है।
बताते चलें कि 'अस्तित्व मूलक' शिक्षा के प्रेरणा स्रोत 'श्री ए. नागराज' हैं जिन्होंने एक वैद्य, एक व्यापारी और किसान के रूप में जीवन जीकर यह महत्वपूर्ण दर्शन दिया है। मनीष सिसोदिया इन्हें अपना प्रेरणा स्रोत मानते हैं और बताते हैं कि तमाम समस्याएं आंदोलनों और कानूनों के जरिए हल होने की बजाय शिक्षा के द्वारा ही हल की जा सकती हैं।
किताब के अंत में 'हैप्पीनेस क्लास' के प्रयोग का ज़िक्र आप को रोमांचित कर देगा। यह मॉडल प्राइवेट स्कूल्स भी अपनाने की दिशा में बढ़ रहे हैं। तकरीबन 8,000,00 छात्रों को रोजाना एक हैप्पीनेस का पीरियड देने का मॉडल आपको अवश्य ही समझना चाहिए।
इसमें कई सारे उदाहरण दिए गए हैं। मनीष क्लियर करते हैं कि हैप्पीनेस की क्लास केवल नैतिक शिक्षा की क्लास नहीं है और ना ही यह ऐसी ही कुछ एक्टिविटीज की क्लास भर है। इसकी बजाय यह इमोशनल साइंस और पुरातन भारतीय चिंतन एवं शिक्षण के अनुभव को जोड़ कर तैयार किया गया है। इसमें माइंडफुलनेस मेडिटेशन, प्रेरक मगर वैज्ञानिक कहानियों के माध्यम से बच्चों को जिम्मेदार और परिपक्व को बनाने की बात कही गयी है। ऐसी ही एक्टिविटीज आधारित चर्चा का वैज्ञानिक अध्ययन पर आधारित पक्ष ज्यादा इंपॉर्टेंट रखा गया है।
मतलब यह पूरी एक्टिविटी वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित है। आपको इस चेप्टर को अवश्य ही पढ़ना चाहिए क्योंकि तमाम पश्चिमी देशों में भी माइंडफुलनेस मेडिटेशन इत्यादि अनिवार्य हिस्से बनाए जा चुके हैं।
छोटी-छोटी कहानियां किस प्रकार से इस करिकुलम में शामिल की गई हैं उसका एक उदाहरण यहाँ भी देना चाहूंगा।
तीन मजदूरों के नजरिए को बताती हुई इस कहानी में निर्माण कार्य में लगे मजदूरों से एक व्यक्ति बात करते हुए पूछता है कि वह क्या कर रहे हैं?
पहला मजदूर कहता है कि वह पत्थर तोड़ रहा है, जबकि दूसरा कहता है कि वह अपनी आजीविका कमा रहा है। लेकिन तीसरा मजदूर कहता है कि वह स्कूल बनाने के लिए काम कर रहा है और स्कूल बनेगा तो उसमें बच्चे पढ़ेंगे।
जाहिर तौर पर एक ही जगह पर एक ही परिस्थिति में कार्य कर रहे तीन लोगों का नजरिया अलग है और यह मनुष्य की मनः स्थिति को सटीकता से वर्णित करता है। मनीष बताते हैं कि इन कहानियों के माध्यम से बच्चों के सामने विभिन्न परिस्थितियां रखी जा सकती हैं, ताकि वह उसे परख सके ना कि केवल आदर्शवादी बातें बता कर उन पर महानता थोपने की कोशिश की जानी चाहिए। जाहिर तौर पर यह बेहद बारीक प्रयोग है और अगर इसी अनुरूप कोर्सेज और करिकुलम चलते रहते हैं, अपडेट होते रहते हैं तो निश्चित रूप से इसके बेहतर परिणाम आएंगे। इसी प्रकार रिश्ते और संबंधों के आधार पर कई सारी कहानियां और एक्टिविटीज शामिल की गई हैं।
इसके अलावा यहाँ भावनात्मक आवश्यकताओं के आधार पर बच्चों से अलग-अलग एक्टिविटीज कराई जाती हैं। निश्चित रूप से 'हैप्पीनेस क्लास' एक बेहद सटीक उदहारण है और इसकी चर्चा ना केवल देश में बल्कि 2017 के मास्को में हुए 'अंतरराष्ट्रीय शिक्षा सम्मेलन' में भी मनीष ने इसका जिक्र किया था। अपने उस अनुभव को मनीष ने किताब में संजोया है।
'हैप्पीनेस क्लास' जहां पहली से आठवीं तक के बच्चों को लेकर शुरू की गई है वहीं एंटरप्रेन्योरशिप माइंडसेट करिकुलम, 9वीं से 12वीं तक के विद्यार्थियों को लेकर शुरू किया गया है। इसमें बच्चों के प्रोफेशनल और कैरियर के स्ट्रेंथ को मजबूती देने की कोशिश की गई है। मतलब साफ है कि हर व्यक्ति नौकरी ना ढूंढे, बल्कि नौकरी देने की मानसिकता से भी कार्य करे।
हालांकि मनीष क्लियर करते हैं कि यह पाठ्यक्रम बच्चों को केवल एक व्यवसाई नहीं बनाता है बल्कि उसकी पर्सनैलिटी में एंटरप्रेन्योरशिप का नजरिया विकसित करने की कोशिश करता है।
इसका उदाहरण देते हुए मनीष बताते हैं कि अगर एंटरप्रेन्योरशिप कोर्स का सिर्फ यही अर्थ निकाला जाए कि बच्चों को सिर्फ व्यवसाई बनाना है तब एक बच्चा जो साइंटिस्ट बनना चाहता है उसको यह मदद नहीं कर पाएगा। ऐसे में एंटरप्रेन्योरशिप एटीट्यूड का मतलब यह है कि बच्चा चाहे जॉब करे, चाहे जॉब दे.... पर वह पूरी जिम्मेदारी के साथ बेहतर दृष्टिकोण से उस कार्य को अंजाम दे। मुझे लगता है कि इसमें बहुत बारीक तरीके से ध्यान दिया जाना चाहिए, क्योंकि तभी यह कार्यक्रम सफल होगा और तभी बेहतर ढंग से इसका परिणाम भी आएगा।
किताब के अंत में आगे के दृष्टिकोण और आगे की योजनाओं पर भी मनीष चर्चा करते हैं जिसमें 10% टीचर्स बेंच पर रखने की बात मनीष कहते हैं, ताकि छुट्टी इत्यादि की स्थिति में बच्चों का अध्ययन प्रभावित न हो! इसके अलावा 'हैप्पीनेस' और 'एंटरप्रेन्योरशिप माइंडसेट' करिकुलम की तरह 'देशभक्ति या नागरिकता' पाठ्यक्रम शुरू करने की अपनी योजना का भी मनीष जिक्र करते हैं।
इसके अलावा वर्तमान सिलेबस को लगभग आधा करने की बात वह करते हैं, दिल्ली में शिक्षा विभाग के ढांचे में परिवर्तन की बात करते हैं। इसके अतिरिक्त परीक्षा प्रणाली में परिवर्तन, शिक्षा बोर्ड का गठन इत्यादी अपनी योजनाओं को मनीष सिसोदिया ने इस किताब के अंतिम हिस्से में बतलाया है। साथ ही शिक्षकों की ट्रेनिंग के लिए टीचर ट्रेनिंग यूनिवर्सिटी अप्लायड साइंस यूनिवर्सिटी, स्पोर्ट्स यूनिवर्सिटी की अपनी योजनाओं को मनीष सिसोदिया ने विस्तार से इस किताब में बतलाया है।
बहुत सारी किताबें हम और आप पढ़ते हैं, लेकिन प्रयोगों पर आधारित वैज्ञानिकता के साथ रची गई किताबें बहुत कम मिलती हैं। मनीष सिसोदिया के द्वारा रचित और पेंग्विन बुक्स द्वारा पब्लिश यह किताब आपके मन मस्तिष्क को रोमांचित करेगी, इस बात में कोई दो राय नहीं है।
आप इस बात के लिए प्रेरित होंगे कि क्या वाकई शिक्षा इतनी इंपॉर्टेंट है जो विश्व में व्याप्त आतंकवाद, ग्लोबल वार्मिंग और दूसरी तमाम समस्याओं से निजात दिला सकेगी?
वास्तव में सच्चाई तो यही है कि शिक्षा सभी समस्याओं को सॉल्व कर सकती है, लेकिन उसे डिवेलप करने का नजरिया कितना विस्तृत है, कितना विजनरी है यह बहुत इंपॉर्टेंट है। आखिर, जैसा बीज आप डालेंगे, वैसा पौधा आपको नज़र आएगा!
आपको इस किताब में निश्चित रूप से विजन देखने को मिलेगा और संभवतः सुधार का दृष्टिकोण रखने वाले लोगों को इस किताब के माध्यम से एक नई ऊर्जा भी प्राप्त होगी... इस बात में दो राय नहीं है!
दिल्ली के माननीय उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया को इस व्यावहारिक पुस्तक की रचना के लिए हृदय से धन्यवाद दिया जाना चाहिए।
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Web Title: Shiksha by Manish Sisodia, Book Review in Hindi
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