यहाँ दो खबरों का जिक्र करना चाहूंगा। पहली भारतीय राजनीति और भारतीय उद्योग जगत से है, जिसमें केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के सामने उद्योगपति राहुल बजाज ने देश में डर के माहौल और सरकार द्वारा आलोचना ना सुनने को लेकर अपनी बात रखी। यह मामला एक कॉर्पोरेट अवार्ड आयोजन के दौरान उठा।
इंटरेस्टिंग बात यह है कि इस बातचीत में उन्होंने जिस बात का डर जताया था कि सरकार आलोचना को सही ढंग से नहीं लेती है, उसी डर को सरकार ने एक तरह से जाहिर कर दिया।
24 घंटे भी नहीं बीते थे कि केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने पलटवार करते हुए ट्वीट कर डाला कि राहुल बजाज जैसे लोगों के वक्तव्य से देशहित को चोट पहुंचती है और उन्हें अपनी धारणा फ़ैलाने की जगह जवाब पाने के दूसरे तरीके आजमाना चाहिए।
सिर्फ निर्मला सीतारमण ही नहीं, बल्कि भाजपा आईटी सेल के हेड के तौर पर अमित मालवीय ने राहुल बजाज की पुरानी वीडियो और क्लिप्स निकालकर ट्रोल अंदाज में उन पर वार करना शुरू कर दिया और उन्हें एक तरह से कांग्रेसी सपोर्टर ही बता डाला।
बहरहाल दूसरी खबर की ओर आते हैं। यह खबर यूनाइटेड स्टेट ऑफ़ अमेरिका से रिलेटेड है और इसके मूल में भी एक इंडियन मूल का व्यक्ति ही है। उस नॉन रेजिडेंट इंडियन का नाम है सुंदर पिचाई। जैसा कि हम सबको पता है कि पिछले कई सालों से सुंदर पिचाई गूगल के सीईओ के तौर पर अपनी सेवाएं दे रहे हैं।
इस बात पर प्रत्येक भारतीय को निश्चित तौर पर गर्व होगा कि गूगल की पैरंट कंपनी अल्फाबेट का भी उन्हें सीईओ बना दिया गया है। ना केवल उन्हें सीईओ बनाया गया है, बल्कि गूगल के को फाउंडर लैरी पेज और सर्गेई बिन द्वारा उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की गई है। इस भारतीय की तारीफ करते हुए गूगल के फाउंडर्स ने कहा है कि सुंदर पिचाई से बेहतर गूगल और अल्फाबेट को कोई नहीं चला सकता।
अब इस आर्टिकल के टाइटल में इस्तेमाल किया गया तीसरा शब्द 'ब्रेन-ड्रेन' की तरफ मैं आना चाहूंगा। अर्थव्यवस्था के असंतुलित होने के कारणों में से ब्रेन-ड्रेन की समस्या से हम सब वाकिफ हैं। भारतीय प्रतिभाओं के विदेश जाने को लेकर तमाम चर्चाएं होती रहती हैं, तमाम मंचों पर लोग अपनी बात कहते रहे हैं। कोई इसको बुरा कहता है, कोई बाहर जाने वाले लोगों को स्वार्थी कहता है, आत्म केंद्रित कहता है, लेकिन आप इन तीनों चीजों को बारीकी से देखें तो आप पाएंगे कि ब्रेन ड्रेन जैसी समस्याएं किसी स्वार्थ-मात्र सोच से उठती हुई समस्याएं नहीं हैं, बल्कि उद्यमी, मेहनती लोगों की एक तरह से यह मजबूरी-सी हो गई है।
जरा कल्पना कीजिए...
देश में तमाम लोगों के धंधे बंद हो चुके हैं। तमाम इंडस्ट्रीज अपने निचले लेवल पर परफॉर्म कर रही हैं, करोड़ों लोगों की जॉब चली गई है, यहां तक कि सरकारी आंकड़ों में पिछले 6 सालों में सबसे निचले स्तर पर जीडीपी की वृद्धि दर्ज की गई है, लेकिन उद्योगों की बर्बादी के इस दौर में कोई भी उद्योगपति खुलकर सरकार की आलोचना तक नहीं कर पाता है। राहुल बजाज जैसा एक उद्योगपति अगर आवाज उठाता है तो खुद केंद्रीय वित्त मंत्री उसे राष्ट्रीय हित पर चोट बता देती हैं।
अब कोई बताए कि राष्ट्रीय हितों पर चोट जीडीपी की न्यूनतम परफारमेंस , करोड़ों नौकरीयों के जाने से लगती है या किसी उद्योगपति के शालीन ढंग से देश के गृह मंत्री के सामने अपनी बात रखने से जाती है?
क्या वाकई डेमोक्रेसी में किसी के आवाज उठाने से, विरोध-प्रदर्शन करने से राष्ट्रीय हितों पर चोट हो जाती है?
फिर तो यह कोई राजतंत्र हो गया लगता है या फिर कोई डिक्टेटरशिप सी सरकार हो गई लगती है, जिसमें कोई बोल ही नहीं सकता!
ज़रा सोचिये, कोई उद्योगपति जिसके पास पूंजी भी हो, तो ऐसी अवस्था में इंडिया में भला क्यों बिजनेस करना चाहेगा?
ज़रा सोचिये, कोई भी प्रोफेशनल जिसके पास स्किल है, जिसके पास विजन है, वह इंडिया में अपना स्टार्टअप क्यों करना चाहेगा?
मजबूरी में जब तक उसे कहीं ऑप्शन नहीं मिलता है, तब तक वह बेशक यहां परफॉर्म करे, लेकिन उसकी परफॉर्मेंस न्यूनतम लेवल पर ही होगी।
उसकी परफॉर्मेंस कहीं से भी ऐसी नहीं होगी, जैसी सुंदर पिचाई की है!
बायोकान की अध्यक्ष किरण मजूमदार ने वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के 'राष्ट्रीय हित' बयान का जवाब देते हुए कहा कि इंडिया इंक कभी भी राष्ट्रीय हित पर चोट नहीं करता है, बल्कि सरकार आलोचना नहीं सुनती है। उन्होंने यह भी जोड़ा है कि जो अब मंदी से उबरने के प्रयास किए जा रहे हैं, वह बजट में भी तो किए जा सकते थे?
इसके अलावा भी कई सारे सुझाव हैं, लेकिन एक बात जो किरण मजूमदार शॉ ने कही है वह गौर करने लायक है कि "सरकार इंडिया इंक से अछूतों की तरह व्यवहार कर रही है।"
प्रश्न उठता है कि आखिर सरकार उद्योग-जगत को विश्वास में क्यों नहीं ले रही है?
बहुत मुमकिन है कि एक या दो उद्योगपति किसी पॉलिटिकल एंगल से बायस हों, लेकिन सरकार को यह सोचना चाहिए कि तमाम इंडस्ट्रीज पर भारी-संकट होने के बावजूद बाकी इंडस्ट्रियलिस्ट उसकी आलोचना क्यों नहीं कर रहे हैं?
अगर डेमोक्रेसी में आलोचना नहीं होगी, तो इसका मतलब वह देश घुटन के दौर से गुजरेगा और ब्रेन ड्रेन जैसी समस्याएं हमारी देश की रिसोर्सेज को नुकसान पहुंचाती रहेंगी। 'ब्रेन-ड्रेन' वस्तुतः कोई विकल्प नहीं है, यह कोई ऑप्शन नहीं है, बल्कि यह लोगों की मजबूरी बन जाता है, खासकर तब जब उन्हें घुटन महसूस होती है।
काश कि भारतीय उद्योगपति भी उसी मुक्त कंठ से सरकार के सामने अपनी बातें रख पाते, जिस प्रकार से सुंदर पिचाई या ऐसे दूसरे लोग अपनी कंपनी चलाने के मामलों में अपनी बात रख पाते हैं। वहीं काश! सरकार भी अपने उद्योगपतियों की उसी मुक्त-कंठ से प्रशंसा कर पाती, जैसे गूगल के को-फाउंडर्स ने सुंदर पिचाई की करी है।
लेकिन इसके लिए क्या भारतीय राजनीतिक और प्रशासनिक तंत्र बड़ा दिल दिखाएगा?
क्या सरकार किसी उद्योगपति के क्रिटिसिजम पर यह नहीं कहने का माद्दा दिखलायेगी कि कांग्रेस राज में तो उसे बहुत फायदा हुआ है, इसलिए वह सरकार की आलोचना नहीं करता था, जबकि अब भाजपा राज में उसे भ्रष्टाचार करने का मौका नहीं मिल रहा है इसलिए वह सरकार की आलोचना कर रहा है!
कितनी नीच और घटिया बात है!
अगर कोई उद्योगपति भ्रष्टाचार करता है या ऐसा उसकी मंशा है तो पूरे सबूत के साथ उस पर कार्रवाई होनी चाहिए और उसे नीरव मोदी या विजय माल्या जैसे देश से बाहर जाने की अनुमति नहीं होनी चाहिए। सरकार के पास पूरा तंत्र है, लेकिन अगर उद्योग से संबंधित, देश से सम्बन्धित वह कोई आलोचना सामने रखता है, तो उसे मुक्त कंठ और मुक्त दिमाग के साथ मुक्त हृदय से स्वीकार किया जाना चाहिए, अंगीकार किया जाना चाहिए।
बहरहाल, सुन्दर पिचाई को महिंद्रा ग्रुप के आनंद महिंद्रा सहित पेटीएम के विजय शेखर और उद्योग जगत के तमाम लोग बधाई दे रहे हैं।
आखिर दें भी क्यों न, उद्योग जगत के व्यक्ति ने राष्ट्रीय-हित को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सम्मान जो दिलाया है।
इस मुद्दे पर अपनी राय अवश्य दें।
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
** See, which Industries we are covering for Premium Content Solutions!
Web Title: Premium Hindi Content on Rahul Bajaj, Sunder Pichai, Brain Drain Social Article in Hindi
इंटरेस्टिंग बात यह है कि इस बातचीत में उन्होंने जिस बात का डर जताया था कि सरकार आलोचना को सही ढंग से नहीं लेती है, उसी डर को सरकार ने एक तरह से जाहिर कर दिया।
Rahul Bajaj, Sunder Pichai, Brain Drain, Social Article in Hindi |
24 घंटे भी नहीं बीते थे कि केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने पलटवार करते हुए ट्वीट कर डाला कि राहुल बजाज जैसे लोगों के वक्तव्य से देशहित को चोट पहुंचती है और उन्हें अपनी धारणा फ़ैलाने की जगह जवाब पाने के दूसरे तरीके आजमाना चाहिए।
सिर्फ निर्मला सीतारमण ही नहीं, बल्कि भाजपा आईटी सेल के हेड के तौर पर अमित मालवीय ने राहुल बजाज की पुरानी वीडियो और क्लिप्स निकालकर ट्रोल अंदाज में उन पर वार करना शुरू कर दिया और उन्हें एक तरह से कांग्रेसी सपोर्टर ही बता डाला।
बहरहाल दूसरी खबर की ओर आते हैं। यह खबर यूनाइटेड स्टेट ऑफ़ अमेरिका से रिलेटेड है और इसके मूल में भी एक इंडियन मूल का व्यक्ति ही है। उस नॉन रेजिडेंट इंडियन का नाम है सुंदर पिचाई। जैसा कि हम सबको पता है कि पिछले कई सालों से सुंदर पिचाई गूगल के सीईओ के तौर पर अपनी सेवाएं दे रहे हैं।
इस बात पर प्रत्येक भारतीय को निश्चित तौर पर गर्व होगा कि गूगल की पैरंट कंपनी अल्फाबेट का भी उन्हें सीईओ बना दिया गया है। ना केवल उन्हें सीईओ बनाया गया है, बल्कि गूगल के को फाउंडर लैरी पेज और सर्गेई बिन द्वारा उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की गई है। इस भारतीय की तारीफ करते हुए गूगल के फाउंडर्स ने कहा है कि सुंदर पिचाई से बेहतर गूगल और अल्फाबेट को कोई नहीं चला सकता।
अब इस आर्टिकल के टाइटल में इस्तेमाल किया गया तीसरा शब्द 'ब्रेन-ड्रेन' की तरफ मैं आना चाहूंगा। अर्थव्यवस्था के असंतुलित होने के कारणों में से ब्रेन-ड्रेन की समस्या से हम सब वाकिफ हैं। भारतीय प्रतिभाओं के विदेश जाने को लेकर तमाम चर्चाएं होती रहती हैं, तमाम मंचों पर लोग अपनी बात कहते रहे हैं। कोई इसको बुरा कहता है, कोई बाहर जाने वाले लोगों को स्वार्थी कहता है, आत्म केंद्रित कहता है, लेकिन आप इन तीनों चीजों को बारीकी से देखें तो आप पाएंगे कि ब्रेन ड्रेन जैसी समस्याएं किसी स्वार्थ-मात्र सोच से उठती हुई समस्याएं नहीं हैं, बल्कि उद्यमी, मेहनती लोगों की एक तरह से यह मजबूरी-सी हो गई है।
यह एक तथ्य है कि भारत का ऐसा माहौल कोई आज से ही नहीं है, बल्कि आज़ादी के बाद के दशकों में ऐसा ही रहा है। इंस्पेक्टर-राज, लालफीताशाही, राजनीतिक भ्रष्टाचार, माफियागिरी, अपहरण व डर का माहौल इत्यादि हमारे कल्चर के अंग बन चुके हैं।
जरा कल्पना कीजिए...
देश में तमाम लोगों के धंधे बंद हो चुके हैं। तमाम इंडस्ट्रीज अपने निचले लेवल पर परफॉर्म कर रही हैं, करोड़ों लोगों की जॉब चली गई है, यहां तक कि सरकारी आंकड़ों में पिछले 6 सालों में सबसे निचले स्तर पर जीडीपी की वृद्धि दर्ज की गई है, लेकिन उद्योगों की बर्बादी के इस दौर में कोई भी उद्योगपति खुलकर सरकार की आलोचना तक नहीं कर पाता है। राहुल बजाज जैसा एक उद्योगपति अगर आवाज उठाता है तो खुद केंद्रीय वित्त मंत्री उसे राष्ट्रीय हित पर चोट बता देती हैं।
अब कोई बताए कि राष्ट्रीय हितों पर चोट जीडीपी की न्यूनतम परफारमेंस , करोड़ों नौकरीयों के जाने से लगती है या किसी उद्योगपति के शालीन ढंग से देश के गृह मंत्री के सामने अपनी बात रखने से जाती है?
क्या वाकई डेमोक्रेसी में किसी के आवाज उठाने से, विरोध-प्रदर्शन करने से राष्ट्रीय हितों पर चोट हो जाती है?
फिर तो यह कोई राजतंत्र हो गया लगता है या फिर कोई डिक्टेटरशिप सी सरकार हो गई लगती है, जिसमें कोई बोल ही नहीं सकता!
Nirmala Sitharaman Tweet on Rahul Bajaj, Screenshot |
सच कहा जाए तो लोकतंत्र में आलोचना, प्रदर्शन, विरोध इत्यादि किसी आभूषण की तरह होते हैं। जिस लोकतंत्र में यह सारे तत्व ना हों, वह वस्तुतः लोकतंत्र है ही नहीं!
ज़रा सोचिये, कोई उद्योगपति जिसके पास पूंजी भी हो, तो ऐसी अवस्था में इंडिया में भला क्यों बिजनेस करना चाहेगा?
ज़रा सोचिये, कोई भी प्रोफेशनल जिसके पास स्किल है, जिसके पास विजन है, वह इंडिया में अपना स्टार्टअप क्यों करना चाहेगा?
मजबूरी में जब तक उसे कहीं ऑप्शन नहीं मिलता है, तब तक वह बेशक यहां परफॉर्म करे, लेकिन उसकी परफॉर्मेंस न्यूनतम लेवल पर ही होगी।
उसकी परफॉर्मेंस कहीं से भी ऐसी नहीं होगी, जैसी सुंदर पिचाई की है!
बायोकान की अध्यक्ष किरण मजूमदार ने वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के 'राष्ट्रीय हित' बयान का जवाब देते हुए कहा कि इंडिया इंक कभी भी राष्ट्रीय हित पर चोट नहीं करता है, बल्कि सरकार आलोचना नहीं सुनती है। उन्होंने यह भी जोड़ा है कि जो अब मंदी से उबरने के प्रयास किए जा रहे हैं, वह बजट में भी तो किए जा सकते थे?
इसके अलावा भी कई सारे सुझाव हैं, लेकिन एक बात जो किरण मजूमदार शॉ ने कही है वह गौर करने लायक है कि "सरकार इंडिया इंक से अछूतों की तरह व्यवहार कर रही है।"
प्रश्न उठता है कि आखिर सरकार उद्योग-जगत को विश्वास में क्यों नहीं ले रही है?
बहुत मुमकिन है कि एक या दो उद्योगपति किसी पॉलिटिकल एंगल से बायस हों, लेकिन सरकार को यह सोचना चाहिए कि तमाम इंडस्ट्रीज पर भारी-संकट होने के बावजूद बाकी इंडस्ट्रियलिस्ट उसकी आलोचना क्यों नहीं कर रहे हैं?
अगर डेमोक्रेसी में आलोचना नहीं होगी, तो इसका मतलब वह देश घुटन के दौर से गुजरेगा और ब्रेन ड्रेन जैसी समस्याएं हमारी देश की रिसोर्सेज को नुकसान पहुंचाती रहेंगी। 'ब्रेन-ड्रेन' वस्तुतः कोई विकल्प नहीं है, यह कोई ऑप्शन नहीं है, बल्कि यह लोगों की मजबूरी बन जाता है, खासकर तब जब उन्हें घुटन महसूस होती है।
काश कि भारतीय उद्योगपति भी उसी मुक्त कंठ से सरकार के सामने अपनी बातें रख पाते, जिस प्रकार से सुंदर पिचाई या ऐसे दूसरे लोग अपनी कंपनी चलाने के मामलों में अपनी बात रख पाते हैं। वहीं काश! सरकार भी अपने उद्योगपतियों की उसी मुक्त-कंठ से प्रशंसा कर पाती, जैसे गूगल के को-फाउंडर्स ने सुंदर पिचाई की करी है।
लेकिन इसके लिए क्या भारतीय राजनीतिक और प्रशासनिक तंत्र बड़ा दिल दिखाएगा?
क्या सरकार किसी उद्योगपति के क्रिटिसिजम पर यह नहीं कहने का माद्दा दिखलायेगी कि कांग्रेस राज में तो उसे बहुत फायदा हुआ है, इसलिए वह सरकार की आलोचना नहीं करता था, जबकि अब भाजपा राज में उसे भ्रष्टाचार करने का मौका नहीं मिल रहा है इसलिए वह सरकार की आलोचना कर रहा है!
कितनी नीच और घटिया बात है!
अगर कोई उद्योगपति भ्रष्टाचार करता है या ऐसा उसकी मंशा है तो पूरे सबूत के साथ उस पर कार्रवाई होनी चाहिए और उसे नीरव मोदी या विजय माल्या जैसे देश से बाहर जाने की अनुमति नहीं होनी चाहिए। सरकार के पास पूरा तंत्र है, लेकिन अगर उद्योग से संबंधित, देश से सम्बन्धित वह कोई आलोचना सामने रखता है, तो उसे मुक्त कंठ और मुक्त दिमाग के साथ मुक्त हृदय से स्वीकार किया जाना चाहिए, अंगीकार किया जाना चाहिए।
बहरहाल, सुन्दर पिचाई को महिंद्रा ग्रुप के आनंद महिंद्रा सहित पेटीएम के विजय शेखर और उद्योग जगत के तमाम लोग बधाई दे रहे हैं।
आखिर दें भी क्यों न, उद्योग जगत के व्यक्ति ने राष्ट्रीय-हित को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सम्मान जो दिलाया है।
इस मुद्दे पर अपनी राय अवश्य दें।
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
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Mithilesh pls see s& p ratings also
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