Eklavya: The Great Guru Bhakt Archer (Pic: indiaspeaksdaily) |
शक्तिशाली, प्रतिभाशाली एवं योग्य होने के बावजूद योद्धा के तौर पर गुमनामी में खो जाने वाले पौराणिक चरित्रों की बात करें तो धनुर्धर द्रोण शिष्य एकलव्य का नाम सबसे ऊपर की पंक्ति में नज़र आएगा!
हम सभी जानते ही हैं कि द्वापर युग में एकलव्य ने गुरु दक्षिणा में अपने दाएं हाथ का अंगूठा काटकर गुरु द्रोणाचार्य को प्रस्तुत कर दिया था.
कहते हैं कि एकलव्य अर्जुन से भी बड़े धनुर्धर थे और इसका सबसे बड़ा प्रमाण खुद गुरु द्रोणाचार्य ही हैं, जिन्होंने एकलव्य की प्रतिभा देखकर अंदाजा लगा लिया था. द्रोणाचार्य जान गए थे कि एकलव्य अर्जुन से भी बड़े धनुर्धर हों जाएँगे और द्रोणाचार्य का वह वचन भंग हो जायेगा, जिसमें उन्होंने अर्जुन को संसार का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाने का वचन दिया था.
एकलव्य के कुल की बात करें तो वह भील,अर्थात निषाद जाति से संबंध रखते थे. यह जातियां जंगलों में रहती व शिकार कर अपनी आजीविका का निर्वहन करती थीं. हालाँकि, एकलव्य के पिता हिरण्यधनु भील जाति के कबीला-प्रमुख थे.
इसीलिए इन्हें भीलपुत्र भी कहा जाता है.
शिकार व तीरंदाजी का शौक उन्हें अपने कबीले से ही प्राप्त हुआ, पर तीरंदाजी का उनका जूनून बढ़ता चला गया.
चूंकि उस वक्त छोटी जातियों को शिकार से अधिक धनुर्विद्या सीखने पर प्रतिबन्ध था, अतः वह दूर-दराज के क्षेत्रों में अपने लिए एक योग्य गुरु की तलाश करने लगे. कहते हैं कि एकलव्य की असाधारण प्रतिभा को सबसे पहले पुलक मुनि ने पहचाना और उनके पिता हिरण्यधनु से कहा कि उनका पुत्र एक बड़ा धनुर्धर बन सकता है.
बस फिर क्या था!
उन दिनों द्रोणाचार्य की प्रसिद्धि दूर-दूर तक एक 'गुरु' के रूप में फ़ैल चुकी थी, क्योंकि द्रोणाचार्य, आर्यावर्त (भारत) के सबसे शक्तिशाली और समृद्ध राज्य हस्तिनापुर के राजकुमारों को प्रशिक्षण दे रहे थे.
ज़ाहिर तौर पर एकलव्य अपने पिता हिरण्यधनु के साथ गुरु द्रोणाचार्य के पास पहुंचे थे. परन्तु वहां जाने के बाद पता चला कि गुरु द्रोणाचार्य सिर्फ क्षत्रियों, और उनमें भी सिर्फ कुरुवंश के राजकुमारों को ही शिक्षा देने का व्रत लिया हुआ है.
ऐसे में द्रोणाचार्य द्वारा एकलव्य को धनुर्विद्या सिखाने से इंकार करने के पश्चात भी एकलव्य ने हार नहीं मानी और जंगल में लौट कर उन्होंने अभ्यास करने का संकल्प लिया.
इसके लिए एकलव्य ने गुरु द्रोणाचार्य की मिट्टी से एक मूर्ति बनाकर धनुर्विद्या का अभ्यास करना शुरू कर दिया.
पेड़ों-पौधों के बीच छिपकर उन्होंने धनुर्विद्या की एक-एक बारीकी सीखी और उसका अभ्यास भी किया.
स्व-प्रेरणा से किया गया अभ्यास सर्वदा सर्वोत्तम होता है और एकलव्य ने यह सिद्ध कर दिया.
फिर आया महाभारत काल का वह समय, जिसे द्रोणाचार्य जैसे शिक्षक के लिए कलंक माना जाता है!
तब एकलव्य अपनी धनुर्विद्या का एकाग्रता से अभ्यास कर रहे थे. वहीं एक आश्रम का कुत्ता आकर भोंकने लगा, जिससे एकलव्य की एकाग्रता भंग हो रही थी. तत्काल ही एकलव्य ने एक-एक करके कई तीर इस कुशलता से चलाए कि बगैर रक्त की एक बूँद गिरे, कुत्ते का मुंह बंद हो गया.
चूंकि कुत्ता आश्रम का ही था, तो मुंह में तीर फंसे होने के कारण वह भाग कर आश्रम गया और वहां सभी शिष्यों सहित स्वयं द्रोणाचार्य ने जब उस कुत्ते को देखा तो वह भौंचक्के हो गए.
दूसरे शिष्य उस दृश्य को देखकर हैरान थे, किन्तु अर्जुन और खुद द्रोणाचार्य को उस धनुर्विद्या पर आश्चर्य हो रहा था!
ढूँढने पर उन्हें आश्रम से कुछ दूर एकलव्य अभ्यास करता नज़र आ गया और द्रोणाचार्य को अपने वचन की याद हो आयी कि 'अर्जुन को वह दुनिया का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनायेंगे'!
पर यहाँ तो साफ़-साफ़ एकलव्य अर्जुन से आगे नज़र आ रहा था!
द्रोणाचार्य और हस्तिनापुर के समस्त राजकुमारों के आश्चर्य का तब कोई ठिकाना न रहा, जब एकलव्य ने यह कहा कि उसने समस्त विद्या गुरु द्रोणाचार्य से ही सीखी है.
तब तक द्रोणाचार्य फैसला ले चुके थे...
एकलव्य का समर्पण देखकर गुरु दक्षिणा के रूप में द्रोणाचार्य ने उस भील-पुत्र के दाहिने हाथ का अंगूठा मांग लिया!
Eklavya: The Great Guru Bhakt Archer |
द्रोणाचार्य की इस मांग पर चारों ओर सन्नाटा छा गया और स्वयं उनका पुत्र अश्वत्थामा अवाक रह गया!
एकलव्य ने एक पल गँवाए बगैर अपना अंगूठा काट द्रोणाचार्य को प्रस्तुत भी कर दिया!
चूंकि बाण चलाने में दाहिने हाथ के अंगूठे का विशेष प्रयोग होता है, अतः एकलव्य की भविष्य में सर्वश्रेष्ठ बनने की तमाम संभावनाएं भी जाती रहीं.
इतिहास ने द्रोणाचार्य पर सदैव इस पक्षपात का लांछन लगाया, किन्तु अर्जुन ने बाद के दिनों में धरती के तमाम वीरों को हरा कर यह साबित किया कि बेशक द्रोणाचार्य ने अपने वचन की लाज रखने के लिए एकलव्य का अंगूठा दान में लिया हो, किन्तु स्वयं अर्जुन में ही सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनने की काबिलियत थी!
बहरहाल, एकलव्य सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनता या नहीं बनता, किन्तु एक महान शिष्य के रूप में उसकी ख्याति अनंत काल तक के लिए अमर हो गयी. वह बेशक एक योद्धा के रूप में गुमनाम रहा, किन्तु गुरुभक्ति में सर्वश्रेष्ठ अवश्य बना.
कहते हैं, कर्म का फल अवश्य मिलता है और आज हम एकलव्य की कथा आदर के साथ लिख और पढ़ रहे हैं, क्या यह उस महान आत्मा के कर्मों का फल नहीं है?
- रामायण काल की यह कथा पढ़ें: विभीषण चरितं
आज भी आपको एकलव्य के नाम पर तमाम विद्यार्थियों को एकाग्रता का प्रशिक्षण दिया जाता है तो तमाम स्कूल, विद्यालयों का नाम उसी गुरुभक्त बालक के नाम पर आज भी आपको मिल जायेंगे!
आप क्या सोचते हैं इस बारे में, अपनी राय इस महान गाथा और महान चरित्र पर अवश्य व्यक्त करें.
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