- न्याय क्वारेंटीन हो गया है और न्याय की संवैधानिक गारंटी आइसोलेशन में चली गयी प्रतीत होती है
- मेडिकल इमरजेंसी का मतलब नागरिक को न्याय के मौलिक अधिकार से ही वंचित करना कतई नहीं है
- सोचना आवश्यक है कि न्याय का अधिकार किस प्रकार सुरक्षित रहेगा?
संविधान के अनुच्छेद 14 एवं 21 के तहत न्याय पाना किसी नागरिक का मौलिक अधिकार होने के साथ ही यह नैसर्गिक मानवाधिकार भी है, जो कि सम्पूर्ण विश्व के नागरिकों पर लागू होता है। लेकिन कोरोना महामारी के इस दौर में नागरिकों का स्वास्थ्य उनकी आजीविका और अमन चैन के साथ उनका न्याय पाने का नैसर्गिक अधिकार भी बाधित हो रहा है।
स्थिति ऐसी हो गयी कि न्याय क्वारेंटीन हो गया है और न्याय की संवैधानिक गारंटी आइसोलेशन में चली गयी प्रतीत होती है। अदालतों के बार-बार बंद होने से उन पर वादों का बोझ बढ़ने के साथ ही न्याय में विलम्ब और अधिक बढ़ गया है, जिससे न्यायार्थी से न्याय की दूरी भी बढ़ गयी है।
कोरोना संक्रमण रोकने के लिये सरकारी कार्यालय, नागरिकों का आवागमन, व्यवसाय, नागरिक सेवाएं एवं नागरिकों की आजादी को कुछ समय के लिये निलंबित किया जा सकता है, मगर संविधान और उसमें प्रदत्त नागरिक के नैसर्गिक अधिकार निलंबित नहीं हो सकते।
हमारा लोकतंत्र, मानवाधिकार, नागरिक स्वतंत्रता और वैधानिक अधिकार के आधार पर खड़ा है, और न्याय व्यवस्था का प्रत्येक कार्य इन सिद्धान्तों पर आधारित होता है। न्याय व्यवस्था भी अपने चार स्तंभों पर खड़ी है, जिनमें पुलिस, न्यायपालिका, कानूनी सहायता या वकील और जेल शामिल हैं। इन चार स्तंभों में से पुलिस अपना काम निरन्तर कर रही है, जिस कारण जेलें भी आबाद हैं, मगर अदालतों के बंद होने से देश में कानून का राज तो है, मगर उसमें न्याय का तत्व गायब हो रहा है।
लेकिन कोरोना के इस कोलाहल में न्यायार्थी की न्याय की पुकार कहीं सुनाई नहीं दे रही है।
अपनी और अपनों की जान सभी को प्यारी होती है, चाहे कोई जज हो या वादकारी। महामारी किसी धर्म-जाति या ओहदे को नहीं देखती। इसलिये जजों के जीवन की रक्षा भी अत्यंत जरूरी है। लेकिन यह चिन्ता का विषय न्यायार्थी का नहीं, अपितु सरकार और स्वयं न्यापालिका का है।
मेडिकल इमरजेंसी का मतलब नागरिक को न्याय के मौलिक अधिकार से ही वंचित करना कतई नहीं है।
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https://play.google.com/store/apps/details?id=in.articlepediaन्याय में विलम्ब से न्यायार्थी तो पहले ही वंचित थे, लेकिन अब कोरोना काल में न्याय का यह चिरस्थापित सिद्धान्त ही अर्थहीन और अप्रासंगिक हो गया लगता है। प्रत्येक नागरिक चाहे वह नेता हो, या अभिनेता या फिर कोई मजदूर, सभी को न्याय पाने की गारण्टी संविधान के अनुच्छेद 14 एवं 21 में दी गयी है।
इस गारंटी को महामारी ने क्वारेंटीन कर आइसोलेशन में डाल दिया, जिस कारण न्याय पुनः न्यायार्थी से काफी दूर चला गया है। जबकि अपराधी तत्व अपराध कर्म से विरत नहीं हैं। ऑक्सीजन जैसी प्राण वायु और रेमडेशिविर जैसी जीवनरक्षक औषधियों की जमाखोरी और कालाबाजारी जैसे अपराध कर्म करने वाले अपने काले कारनामों से बाज नहीं आ रहे हैं। पुलिस का डंडा ठेली, रेहड़ी वालों से लेकर अपने गांव लौट रहे मजदूरों पर तो चलता है, मगर असली अपराधियों के गिरेबान तक कानून के हाथ बौने पड़ जाते हैं। जेलें अपनी क्षमता से भरने लगीं, तो कोरोना फैलने के डर से अपराधियों को जमानत या पेरोल पर छोड़ दिया गया। लेकिन अदालतें पहले तो खुली नहीं और बीच में कोरोना महामारी के मंद पड़ने पर आंशिक खुली भी, तो फिर तारीख पर तारीख का सिलसिला चल पड़ा। इन हालातों पर तफ्सरा करते हुये प्रख्यात वकील प्रशान्त भूषण ने अपने एक लेख में यहां तक कह डाला कि सुप्रीम कोर्ट लॉक डाउन में तथा न्याय व्यवस्था आपातकालीन देखभाल में है।
हाइकोर्टों और सुप्रीम कोर्ट में तो आपात स्थिति में भी काम हो जाता है, मगर निचली अदालतों में स्थिति बिल्कुल विपरीत है। गत 28 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट से जारी विज्ञप्ति के अनुसार कोरोना काल में सर्वोच्च अदालत ने एक साल में न्यूनतम् 190 दिनों की आवश्यक सिटिंग के विपरीत 231 दिनों तक न्यायिक कार्य किया, जिनमें 13 वोकेशन सिटिंग्स भी शामिल थीं।
हालांकि सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन वर्चुवल कार्यवाही से सन्तुष्ट नहीं है। क्योंकि कोरोनाकाल में मामले भी कम दायर हुये और सारे देश में नेटवर्किंग भी पूरी नहीं है। सामान्यतः छोटी मोटी घटनाओं पर भी कोर्ट कचहरियां अक्सर बाजार से पहले बंद हो जाती थीं, लकिन अब कोरोना काल में निचली अदालतों के दरवाजों पर मकड़जाल ही लग गये हैं। जबकि कुल लंबित मामलों में 87.5 प्रतिशत मामले इन्हीं अदालतों में लंबित हैं। ये अदालतें औसतन 56 प्रतिशत मामले ही प्रति वर्ष निपटा पाती हैं, जिनमें से भी कुछ मामले अन्य आदलतों में स्थानान्तरित हो जाते हैं, तो कुछ बिना ट्रायल के डिसमिस होते हैं, और कुछ अदालत से बाहर निपट जाते हैं।
न्यायिक आंकड़ों की निगरानी करने वाले सरकारी प्लेटफार्म नेशनल ज्यूडिशियल डाटा ग्रिड (एनजेडीजी) के अनुसार 31 दिसम्बर 2019 से लेकर 31 दिसम्बर 2020 की अवधि में जिला अदालतों के बैकलॉग (वादों के बोझ) में 18.2 प्रतिशत की वृद्धि हुयी है। जबकि वर्ष 2017-18 में यह वृद्धि दर 11.6 प्र.श, और वर्ष 2018-19 में 7.79 प्रतिशत थी।
देश के उच्च न्यायालयों में वर्ष 2018-18 में वादों के बोझ की जो वृद्धिदर मात्र 5.29 प्रतिशत थी, वह 2019-20 में 20.4 प्रतिशत तक जा पहुंची। इसी प्रकार सुप्रीम कोर्ट भी पेंडेंसी के बोझ से अछूता नहीं रह सका। गत वर्ष कोरोना काल में सुप्रीमकोर्ट में 10.35 प्रतिशत की वृद्धि हुयी। उसके पास 1 मार्च 2020 को 60,469 मामले लंबित थे, जिनकी संख्या 4 अप्रैल 2021 तक 67,279 तक पहुंच गयी।
सन् 2013 के बाद सर्वोच्च अदालत में लंबित मामलों में यह सर्वाधिक वृद्धि थी। लंबित मामलों में निरन्तर वृद्धि से चिन्तित पूर्व प्रधान न्यायाधीश एस. ए. बोवड़े ने संविधान के अनुछेद 128 एवं 224 ए के तहत अस्थाई जजों की नियुक्ति हेतु गाइडलाइन भी जारी की थी।
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देश में जिला अदालतों से लेकर शीर्ष अदालत तक जजों की कमी के कारण न्यायिक फैसलों में पहले ही काफी विलम्ब हो रहा था, लेकिन कोरोना काल में न्याय में अतिरिक्त विलम्ब से न्यायार्थियों की निराशा में इजाफा कर दिया है। विधि एवं न्याय मंत्रालय के आकड़ों के अनुसार 1 मार्च 2021 तक उच्च न्यायालयों में जजों के 38.8 प्रतिशत पर रिक्त थे। उच्च न्यायालयों में जजों के 1080 स्वीकृत पदों में से केवल 661 पद भरे हुये थे। कुल 34 जजों की स्वीकृत संख्या वाले सर्वोच्च न्यायालय में 4 पद खाली हैं, और कुछ अन्य पद शीघ्र ही खाली होने जा रहे हैं।
निचली अदालतों में न्यायिक अधिकारियों की कुल स्वीकृत संख्या 24,204 के विपरीत केवल 19,172 अधिकारी ही कार्यरत् हैं। गत वर्ष राज्यसभा में दिये गये एक बयान के अनुसार देश के उच्च न्यायालयो 20 सितम्बर 2020 तक 51,57,378 और जिला अदालतों समेत निचली अदालतों में 3,45,71,854 वाद लंबित थे।
ऐसी स्थिति में सोचना आवश्यक है कि न्याय का अधिकार किस प्रकार सुरक्षित रहेगा?
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