- सुशासन सरकार में भी पीड़ितों को न्याय मिलने में 16 वर्ष की देर हुई, वहीं इस सरकार ने उनको न्याय का ऐसा तोहफा दिया जिसका विश्व इतिहास में कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता है
- इतना बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण फैसला न तो राष्ट्रीय स्तर पर मुख्य समाचार बना, शीर्ष स्तर के नेतृत्व ने इस पर टिप्पणी करने से भी परहेज किया, और न हीं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में वाद- विवाद का विषय ही बन पाया
लेखक: डॉ. मनोज कुमार (Dr. Manoj Kumar)
Published on 25 May 2021 (Last Update: 25 May 2021, 11:38 AM IST)
बिहार राज्य के जहानाबाद जिला स्थित सेनारी गाँव 18 मार्च 1999 को जातिवादी नरसंहार का शिकार हुआ. इस घटना में स्वर्ण समाज के भूमिहार ब्राह्मण जाति के 34 निरीह किसानों की माओवादी संगठन की एक शाखा ने नृसंश हत्या की थी. मालूम हो जहानाबाद की जिला अदालत ने 15 नवंबर 2016 को इस मामले में 10 को मौत तथा 3 लोगों को उम्र कैद की सजा दी थी. पटना उच्च न्यायालय ने 21 मई 2021 को इस फैसले को रद्द करते हुए सभी आरोपितों को तुरंत बाइज्जत रिहा करने का आदेश दिया.
यद्यपि कि उच्च न्यायालय ने अपने फैसले के पक्ष में कई तर्क प्रस्तुत किए हैं, लेकिन उसका मुख्य जोर इस बात पर है कि रात्रि में घटित घटना के चलते (स्पष्ट दिखाई नहीं दिए जाने के कारण) संदेह का लाभ देते हुए सभी अभियुक्तों को रिहा किया जाता है. वहीं दूसरी ओर भाजपा समर्थित नीतीश सरकार का मानना है कि चूंकि यह हत्याकांड राजद सरकार के काल में हुई थी, इस कारण प्रशासनिक अनुसंधान दल द्वारा न्यायालय में स्पष्ट साक्ष्य नहीं पेश करने का उत्तरदायित्व भी राजद सरकार की ही है.
गौरतलब है कि नीतीश कुमार बिहार की सत्ता के शीर्ष पर वर्ष 2005 से अब तक काबिज रहे हैं.
सेनारी नरसंहार पर हुए फैसले पर चल रहे आरोप- प्रत्यारोप का मूल बिंदु यही है, और इसी के इर्द-गिर्द सभी के तर्क और चिंतन केन्द्रित और सीमित हैं.
दो राय नहीं कि इस हत्याकांड के समय बिहार में कांग्रेस समर्थित राजद की सरकार थी, लेकिन यह भी सत्य है कि विभीषिका को रोक पाना किसी भी सरकार के बलबूते से बाहर की बात होती है. मुंबई और अमरीका जैसे महाशक्ति के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए व्यापक सफल आतंकवादी हमले इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं.
हां, राजद सरकार इस बात के लिए उत्तरदाई अवश्य है कि पहले से होते आ रहे जातीय नरसंहार से कोई सबक नहीं लिया और आगामी 6 वर्ष (1999 से 2005 तक) के अपने लंबे शासनकाल में साक्ष्य जुटाने तथा पीड़ितों को न्याय दिलाने में असफल रही. इसका स्वाभाविक परिणाम यह हुआ कि राजद की सरकार जंगलराज की संज्ञा से कुख्यात हुई, और सवर्ण जातियों का न केवल कोप भाजन बनी, बल्कि लगातार 15 वर्षों से बिहार की सत्ता पर काबिज लालू यादव और उनका परिवार सत्ता से बेदखल भी हुए. उनकी छवि अभी तक जातिवादी और अपराधिक बनी रही है.
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जहां तक भाजपा समर्थित (सुशासन सरकार की स्थापना नीतीश कुमार का घोषित लक्ष्य है) नीतीश सरकार का प्रश्न है, तो वर्ष 2005 से 2021 अर्थात इस हत्याकांड पर उच्च न्यायालय द्वारा फैसला सुनाए जाने तक बिहार के मुख्यमंत्री के पद पर नियमित रूप से वे सुशोभित हैं. सभी अभियुक्तों को उच्च न्यायालय द्वारा बाइज्जत रिहा किए जाने के सवाल पर भाजपा समर्थित नीतीश सरकार का मानना है कि चूंकि यह घटना राजद काल में घटित हुई थी और इस कारण सारी जिम्मेवारी उसी की बनती है.
ऐसा थोथा और निर्लज्ज तर्क दिया जाना, भूमिहार ब्राह्मण समाज के पीड़ित परिवारों के प्रति कितना हास्यास्पद और न्याय संगत है, यह समझ में आने वाली बात है. यह भी उस स्थिति में, जब इस पीड़ित सवर्ण समाज ने राजद के स्थान पर भाजपा और जदयू को इस कारण प्रतिस्थापित किया था कि उनको शांति व्यवस्था और न्याय मिलना संभव हो सकेगा. जहां सुशासन सरकार में भी पीड़ितों को न्याय मिलने में 16 वर्ष की देर हुई, वहीं इस सरकार ने उनको न्याय का ऐसा तोहफा दिया जिसका विश्व इतिहास में कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता है.
सरकार का मुख्य कार्य ऐसी व्यवस्था का निर्माण करना है, जिसमें एक व्यक्ति भी न्याय से वंचित न हो सके. जहां तक अमन चैन की स्थापना का सवाल है (नौकरशाही की मनमानी को छोड़कर) तो नीतीश सरकार कमोबेश सफल रही है, लेकिन न्याय न दिलाने के मामले में ऐसा प्रतीत होता है कि गिनीज बुक में इस सरकार का नाम अवश्य दर्ज होगा.
किसी भी हत्या से अधिक संज्ञेय अपराध और पीड़ादाई मामला पीड़ित को न्याय से वंचित किया जाना होता है. किसी घटना को दूसरे के काल में घटित होने का तर्क देकर अपने उत्तरदायित्व से विमुख होने का प्रयास किया जाना लोकतंत्र-न्याय और पीड़ित परिवार के प्रति क्रूर मजाक है.
यह भी अटल सत्य है कि अन्याय की अनुभूति पीड़ित व्यक्ति को हिंसा और प्रतिशोध की ओर उन्मुख करता है, वहीं दूसरी ओर सजा न मिलने से हत्यारों की हौसला अफजाई भी होती है.
इसमें कोई संशय नहीं कि सेनारी की घटना एक सुनियोजित नरसंहार था, जिसमें एक - दो नहीं, बल्कि एक तरह से पूरे गांव अर्थात 34 लोगों की गला रेत-रेत कर हत्याएं की गई थीं. वह घटना, जिसमें सारी रात नृसंश हत्या का तांडव चलता रहे, जिसमें लगभग हजारों अपराधियों की प्रत्यक्ष सहभागिता हो, जिसके लिए महीनों से तैयारियां किया जाता रहा हो, पास पड़ोस के गांव में लोग इकट्ठे होते रहे हों, और सबसे बड़ी बात घटना स्थल कोई जंगली क्षेत्र न होकर एक विकसित क्षेत्र में स्थित हो... इनके बावजूद एक भी सबूत हाथ न लगे, एक व्यक्ति भी दोषी सिद्ध न हो पाए, और हत्यारों को बाइज्जत रिहा कर दिया जाए, ऐसी शासन व्यवस्था और न्याय प्रणाली का उदाहरण विश्व के पैमाने पर अन्यत्र नहीं मिलता है.
इतनी बड़ी घटना को घटित होने से नहीं रोका गया, इसलिए नहीं कि व्यापक पैमाने पर होने वाले हलचल से तत्कालीन सरकार अनभिज्ञ थी, और वर्तमान सरकार को 16 वर्षों के गहन अनुसंधान के बावजूद एक भी सबूत हाथ इसलिए नहीं लगा कि वह सबूतों को जुटाने में असमर्थ रही, बल्कि दोनों सरकारों और उनके समर्थित दलों के मुखियागण आमतौर पर या तो एक ही वर्ग विशेष के हैं, या समान प्रवृत्ति के हैं. इसका स्वाभाविक परिणाम यह हुआ कि पीड़ित परिवार न्याय से भी वंचित रह गए. इसमें पीड़ित समाज के ठेकेदारों की पद लोलुपता का योगदान भी कम नहीं है.
यही कारण है कि इतने बड़े हत्याकांड पर, इतना बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण फैसला न तो राष्ट्रीय स्तर पर मुख्य समाचार बना, शीर्ष स्तर के नेतृत्व ने इस पर टिप्पणी करने से भी परहेज किया, और न हीं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में वाद- विवाद का विषय ही बन पाया. मतलब साफ है कि एक ने खाया और दूसरे ने पचाया.
एक बात और, जहां निचली अदालत 10 लोगों को फांसी और तीन लोगों को उम्र कैद की सजा मुकर्रर करती है, वहीं सम्मानित उच्च न्यायालय सभी अभियुक्तों को तुरंत बाइज्जत रिहाई का फरमान जारी करता है. ऐसे न्यायालय के फैसले पर यह सवाल उठना स्वाभाविक और लाजिमी है कि क्या निचली अदालत ने बगैर सबूत ही अभियुक्तों की सजा निर्धारित की थी और ऊपरी अदालत ने तथ्यों की छानबीन किया और रिहाई का आदेश दिया?
यदि अभियुक्तगण उच्च न्यायालय में अपील करने में असमर्थ होते तो ऐसी परिस्थिति में निचली अदालत (उच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार) की गलती के कारण 10 निर्दोष अभियुक्त फांसी के तख्ते पर लटका दिए जाते और तीन बंदी जेल में अपने जीवन बिताने को मजबूर होते?
सजा के परिमाण को कम या अधिक किया जाना समझ में तो आता है, लेकिन जब दो न्यायालयों के निर्णय के बीच स्पष्ट न्याय और अन्याय का अंतर हो तो वह कभी समझ में नहीं आएगा.
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क्या यही संविधान है?
यही सरकार है, यही कानून है, और क्या यही सच्चा न्याय प्रणाली और यही सुशासन है?
यदि संविधान - न्यायालय और सरकार को ऐसी मनमानी करने का अधिकार देता है, तो ऐसी अन्यायमूलक संविधान और उसके सभी अंगों के निर्देशों की अवज्ञा करने का पूर्ण अधिकार हर व्यक्ति को है. कारण स्वतंत्रता - समानता और न्याय नैसर्गिक तथा सार्वभौमिक अधिकार हैं, जो मानव को जन्म से ही प्राप्त हैं, और इनसे वंचित किए जाने का अधिकार किसी को नहीं है.
वर्तमान विश्व उत्तर आधुनिकतावाद के दौर से गुजर रहा है, लेकिन भारत आज भी मध्य काल में लगता है. भारत का विश्व गुरु बनने की ढिंढोरा पीटा जा रहा है, लेकिन यह संसार का शिष्य बनने योग्य भी नहीं है. जिस देश में 34 निरीह लोगों की हत्याएं होती हों और सभी पीड़ित न्याय से पूर्ण वंचित रह जाते हों, जिस देश में निचली और ऊच्च अदालत के निर्णय में आसमान - जमीन का अंतर हो, जिस देश में किसी घटना की 22 वर्षों के जांच के उपरांत भी प्रशासन एक भी सबूत जुटाने में असमर्थ रहती हो, जिस देश की मीडिया, कानून, राजनेता और अदना सा आदमी भी जाति और पार्टी के रंग में रंगा हो - क्या ऐसा देश विश्व गुरु बनने का अधिकारी है?
नहीं: कदापि नहीं!
जिस राज्य की सरकार और न्यायालय इतने बड़े विभत्स हत्याकांड के पीड़ितों को साक्ष्य के अभाव का बहाना बनाकर न्याय से वंचित कर देती हैं, दूसरी ओर जनाक्रोश को भांपते हुए उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाने का आश्वासन देती है. लेकिन न तो न्यायालय और न ही सरकार द्वारा उच्च स्तरीय जांच दल गठित करके इस केस का पुनः अनुसंधान करने का निर्देश दिया जाता है, और न ही नारको टेस्ट की बात की जाती है.
यदि इन सभी अभियुक्तों के साथ-साथ घटनास्थल के क्षेत्रीय अपराधिक प्रवृत्ति के व्यक्तियों एवं नेताओं का नारको टेस्ट किए जाने का आदेश न्यायालय जारी करती तो इसमें दो राय नहीं कि साक्ष्यों का कोई अभाव नहीं होता.
यदि उच्चतम न्यायालय में अपील होती भी है तो उसके निर्णय का मुख्य आधार उच्च न्यायालय का फैसला और राज्य सरकार द्वारा प्रस्तुत किए गए साक्ष्य ही तो होंगे. ऐसी परिस्थिति में पीड़ितों को न्याय मिलने की कितनी संभावना है, यह समझ में आने वाली बात है.
जनता निरीह और आश्वासनों की भूखी होती है, और सरकार तथा नौकरशाही इन कमजोरियों को बखूबी जानती है. सेनारी की घटना साधारण नहीं, बल्कि एक सामूहिक नरसंहार है और इस कारण यह अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय का मामला बनने का अधिकारी भी है.
- डॉ. मनोज कुमार, इतिहास विभाग, पटना विश्वविद्यालय, पटना
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