- इसके लिए आपको कोई सुकरात या प्लेटो बनने की जरूरत नहीं है. ना ही आपको चाणक्य नीति अथवा विदुर नीति कंठस्थ करने की जरूरत है
- जीवन में 90% आपको ऐसे निर्णय लेने पड़ेंगे, जहाँ आपको दोनों तरफ कुछ न कुछ नुकसान दिखेगा, लेकिन...
Published on 24 Jun 2021 (Update: 24 Jun 2021, 1:35 AM IST)
दुनिया में इस 'सफलता - असफलता' के विषय पर, निश्चित रूप से सर्वाधिक चर्चा होती है.
चूंकि यह हर एक व्यक्ति का व्यक्तिगत मैटर तो है ही, उसका परिवारिक - सामाजिक मामला भी है!
धरती पर जब से मनुष्य जन्म लेता है, तब से वह सफलता असफलता के भंवर जाल में फस जाता है. क्या अच्छा है, क्या बुरा है, परंपराएं क्या कहती हैं, शास्त्र क्या कहते हैं, विज्ञान क्या कहता है, खुद मनुष्य की परिस्थितियां क्या कहती हैं... इत्यादि, इत्यादि... इतने मकड़जाल हैं कि दुनिया के 99% से अधिक लोग इस मकड़जाल में, जीवन भर उलझे रह जाते हैं.
एक प्रॉब्लम सुलझती है, तो दूसरी प्रॉब्लम सामने आ जाती है!
एक कॉन्सेप्ट पर विश्वास करते हैं, तो दूसरा कॉन्सेप्ट उसकी बराबरी में खड़ा हो जाता है. दिमाग कुछ कहता है... दिल कुछ कहता है... शरीर कुछ कहता है... समाज कुछ कहता है... और यह क्रम अनवरत जारी रहता है.
यकीनन इन सब परिस्थितियों का आप सबने बेहद बारीकी से सामना किया होगा. ना केवल सामना किया होगा, बल्कि रोज ही किसी न किसी पैमाने पर 'सफल-असफल' की अनुभूति करते ही होंगे!
तो सवाल उठता है कि आखिर जीवन जीने का वास्तविक मंत्र क्या है?
कैसे आदमी खुश रहे?
कैसे आदमी असफलता से दूरी बनाए, और सफलता के नजदीक जाए?
आईये जानने की कोशिश करते हैं इस गूढ़ समस्या को, जिसे समझना कठिन ज़रूर लगता होगा, किन्तु यह पूरा लेख पढने के बाद यह आपको 'अपेक्षाकृत आसान' नज़र आने लगेगा!
1. अपने 'दार्शनिक' स्वयं बनें
(Be your own philosopher, know the self philosophy method)
(Be your own philosopher, know the self philosophy method)
ना ना ना! यह कोई जटिल कॉन्सेप्ट नहीं है!
आपको कोई सुकरात या प्लेटो बनने की जरूरत नहीं है. ना ही आपको चाणक्य नीति अथवा विदुर नीति कंठस्थ करने की जरूरत है.
पूरी तरह से ऐसा ना तो आप कर सकते हैं, और ना ही आपको करने की अभी कोई ज़रुरत ही है.
तो सवाल उठता है कि क्या करना चाहिए?
आज तक आपने सफलता - असफलता को लेकर बहुत सारे कांसेप्ट सुने होंगे, नॉलेज की बुक्स पढ़ी होंगी, लेकिन यहाँ आपको बस इतना करना है, कि जो भी कॉन्सेप्ट, नॉलेज सुनने में आपको अच्छा लगता है, उसे अपने ईमेल में या एक डायरी में नोट कर लें.
ध्यान दीजियेगा, मैं व्हाट्सएप पर नोट करने को नहीं कर रहा हूं, बल्कि ईमेल में नोट करने के लिए कह रहा हूं, क्योंकि ईमेल में आपकी लिखी हुई बातों का एक रिकॉर्ड रहेगा. आप चाहें तो डायरी में भी नोट कर सकते हैं, किंतु अगर डायरी में नोट करते हैं, तो भी उसकी फोटो खींचकर आप ई-मेल में जरूर रख लें, या गूगल ड्राइव पर जरूर रख लें.
अब इसके बाद आपको कुछ अधिक नहीं करना है... बस जीवन में आपके सामने जो भी सिचुएशन (Life Situations) आती है, उससे उन विचारों को कंपैरिजन करें जो आपने पहले से अपने मेल में लिख रखा है.
जैसे ही जीवन की सिचुएशन से आप नोट किए गए थॉट्स को कंपेयर करते हैं, तो एक अलग थ्योरी जन्म लेती है.
तात्पर्य साफ़ है कि दो चीजें मिलाकर, मतलब वास्तविक परिस्थितियों में आपका अनुभव और सफलता - असफलता के पहले से लिखे सूत्र, दोनों मिलाकर आप की अपनी थ्योरी (Real Life Theories) जन्म लेती है, और यहीं से आप अपने 'दार्शनिक' बनना शुरू हो जाते हैं.
यही दर्शन तो आपके जीवन की ड्राइविंग फ़ोर्स है!
इससे आपकी अपनी सोच डिवेलप (Developing your thought process) होना शुरू हो जाती है, और बस बन गए आप खुद के दार्शनिक.
फिर धीरे धीरे यह प्रक्रिया चलती रहती है, और आपकी सोच निरंतर विकास की ओर अग्रसर होती रहती है.
बहुत मुश्किल है क्या यह प्रोसेस?
पूरा लेख पढने के बाद 'खुद का दार्शनिक' बनने के बारे में आपकी अपनी सोच क्या है, कमेन्ट-बॉक्स में ज़रूर बताइयेगा.
पहले लेख के अगले हिस्सों को पूरा पढ़ें!
2. अपने मस्तिष्क को पहचानें
(Know your brain, How to control your own mind)
आपका दिमाग आपसे झूठ, लगातार झूठ बोलता है और आप इस पर भरोसा भी करते हैं... पता है आपको?
आइये इसे समझते हैं.
ध्यान दीजिए, आप खुद को पूरी तरह से परिस्थितियों के हवाले ना कर दें. क्योंकि परिस्थितियों में मनुष्य का मन-मस्तिष्क आसान रास्ता चुनता है, तात्कालिक रास्ता चुनता है, जो बाद के दिनों में कठिन हो जाता है, और मनुष्य को असफलता की ओर धकेल देता है.
दूसरी बात यह है कि पूरी तरह से आपको संस्कारों, शास्त्रों, परंपराओं, मां-बाप - अध्यापक की सीख के हवाले भी खुद को नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह वास्तविक परिस्थितियों से आपको काट देता है.
तीसरी कंडीशन यह है, कि अगर आप इन थॉट्स को कहीं नोट नहीं करते हैं, तो खुद आपका मस्तिष्क आप से ही झूठ बोलने लगता है, अपना डिफेंस करने लगता है, बहानेबाजी ढूंढने लगता है, किंतु जब आप थॉट को नोट करते हैं, तो आप आश्चर्य करेंगे कि आपका मस्तिष्क कल क्या सोचता था, आज क्या सोचता है, और सोच में बदलाव का कारण क्या है?
वास्तव में आपका खुद का मस्तिष्क आपको धोखे में रखता है, और अगर आप ध्यान नहीं देंगे तो मस्तिष्क पूरी तरह आप पर नियंत्रण कर लेता है और चाह कर भी आपका वश खुद पर नहीं रहता है.
आप अपने ही नोट किये हुए थॉट प्रोसेस को एनालाइज करेंगे, तो आपको आश्चर्य होगा कि स्वयं आपका मस्तिष्क आपसे कितना झूठ बोलता है!
इतनी गलत सजेशन देता है, इतना बायस सजेशन देता है, इसे आप को परखने की जरूरत है.
श्रीमदभगवद गीता में भी मन को नियंत्रित करने की बात कही गई है, और उसे नियंत्रित आप जबरस्ती तो कदापि नहीं कर सकते. वस्तुतः मस्तिष्क की सोच को आप तभी नियंत्रित कर सकते हैं, जब उसी रफ्तार से आप उसको समझ सकें.
उसे समझने के लिए जब आप डाटा नोट करते हैं, उसे कंपेयर करते हैं, तो आपका मस्तिष्क किस प्रकार से ऑटो सजेशन देता है, इसे आप आसानी से समझ जाएंगे.
कारपोरेट ट्रेनिंग पर काम करने वाले ट्रेनर विवेक बिंद्रा की Mind Auto Suggestion पर एक वीडियो जरूर देखें. इसका लिंक इस लेख के अंत में दिया गया है.
पर पहले इस लेख को पूरा पढ़ें, समझें, कमेन्ट के माध्यम से चर्चा करें...
ध्यान दीजिए, अगर आप अपने मस्तिष्क को थोड़ा समझने में भी सफल हो गए, तो जीवन को सफल करने का महत्वपूर्ण सूत्र आपके हाथ लग गया समझिये. पर पहले आपको समझना होगा कि...
मस्तिष्क को क्या पसंद है, क्या नापसंद है?
कब वह आलस्य करता है, आलस्य के पीछे का कारण क्या है?
कब वह गुस्सा होता है, कब वह आपको अनियंत्रित कर देता है?
कब दिमाग आपको खुश कर देता है, कब अचानक अत्यधिक नाराज कर देता है?
इसका आसान तरीका यही है, आपके मन में जो भी विचार आते हैं, जिससे आप उस क्षण में प्रभावित होते हैं, कुछ नया पढ़ते हैं, और वह आपके मस्तिष्क को सूट करता है, तो आप उसे नोट करना शुरू कर दें.
फिर उस नोट किये गए विचार को पढ़ें और वर्तमान समय में मस्तिष्क में आये विचारों से उसकी तुलना करें... यह क्रम जारी रखें, स्वेच्छा से... निरंतर!
एक बार कोशिश तो करें...
और आपका मस्तिष्क आपके स्वयं के नियंत्रण में आता चला जायेगा. और अगर मस्तिष्क आपके नियंत्रण में आ गया तो फिर इससे पावरफुल दूसरी चीज आपके पास कुछ और है क्या?
एक बार कोशिश करें ...
3. परिवार और आपकी सफलता-असफलता
(Family and your success-failure)
तीसरे पॉइंट पर आपका परिवार आता है.
आपके मां-बाप, आपकी बीवी, बच्चे, भाई-बहन, रिश्तेदार इत्यादि.
मनुष्य की संरचना आखिर इसी के इर्द-गिर्द तो हुई है. इस लेख के अनुसार चलें तो मनुष्य अपना स्वयं का दार्शनिक बन गया, अपने मस्तिष्क को समझने लगा तो अब वह परिवार के बीच इसके अनुसार बेस्ट प्रैक्टिस करे.
जो उसका दर्शनशास्त्र है, जो उसने बेहतर सीखा है, जो उसे महसूस होता है, जो उसका मस्तिष्क बेस्ट सजेस्ट करता है, वैसा व्यवहार पहले खुद के साथ, फिर उसे परिवार के लोगों के साथ, वही व्यवहार करना शुरू करना चाहिए.
ध्यान दीजिए, इससे पहले का स्टेप है, खुद का दर्शन विकसित करना, फिर खुद के माइंड को समझना - उसे नियंत्रित करना... फिर आगे 'परिवार' आता है.
हम अक्सर इन पॉइंट्स को छोड़कर अपनी सोच परिवार में बताते हैं. वह सोच इतनी उलझी होती है, इतनी अपुष्ट होती है कि उसका कोई मतलब नहीं होता है.
किंतु अगर आपकी सोच क्लियर है, तो आप उसे एक-एक करके आजमा सकते हैं, और उससे जो अनुभव आएंगे, वह आपके लिए अमृत का कार्य करेंगे. लेकिन अक्सर हम उन थ्योरीज को आजमाते हैं, जिन पर हमें खुद भरोसा नहीं होता है. अक्सर वह सुनी सुनाई बातें होती हैं, किसी की कही बातें होती हैं, व्हाट्सअप यूनिवर्सिटी का ज्ञान होता है, और यहां हम उलझ जाते हैं.
जैसे-जैसे आप आगे बढ़ते हैं, वैसे-वैसे आपके एक्सपीरियंस में नई-नई चीजें जुड़ती चली जाती हैं. लेकिन आप इन सभी अनुभवों को नोट करना ना भूले.
यह खुद के लिए है, न कि दुनिया के लिए. ... जो भी आप नोट करते हैं, उससे आप खुद को दिन ब दिन बेहतर बनाते जाते हैं.
एक दिन-रात में कुल 24 घंटे होते हैं, और आज के समय में हर एक व्यक्ति के हाथ में स्मार्टफोन है, जिसमें वॉइस टाइपिंग की सुविधा होती ही है. तो दिन भर में अगर आप 5 से 7 मिनट भी इसके लिए निकालते हैं, तो आप अपने एक्सपीरियंस और विचारों को आसानी से नोट करते जाएंगे.
कोई अच्छी चीज, कोई बुरी चीज, कोई टकराहट की चीज, कोई प्रेरक चीज, कोई नफरत की चीज जो आपका मन मस्तिष्क महसूस करता है, उस पर थोड़ा विचार करें, और अगर वह आपके जीवन को कहीं न कहीं प्रभावित करती है, तो इमानदारी से उसे नोट करें... अपने ईमेल पर / गूगल ड्राइव पर और उसका रिकॉर्ड रखें, ताकि जब चाहें आप उसे देख सकें.
जब चाहें, आप अपने दिमाग में झाँक सकें कि वह क्या सोचता है, क्या मानता है...
इस प्रक्रिया में आपका दर्शन और अपने मस्तिष्क की सोच और क्लियर होती चली जाएगी.
साथ ही आपकी सोच से कौन कितना इत्तेफाक रखता है, उसका कितना विरोध है, और वह विरोध क्यों है, उन प्रश्नों से भी आप का सामना होता चला जाएगा. जाहिर तौर पर नए प्रश्न आएंगे ही, तो उन प्रश्नों पर आपकी सोच नए सिरे से विकसित होगी.
अक्सर यहां जो लोग सबसे बड़ी गलती करते हैं, कि वह अपनी ही सोच से कहीं न कहीं बायस (प्रभावित) हो जाते हैं.
लेकिन यहां पर भगवान कृष्ण का सूत्र आप लाइए 'परिवर्तन संसार का नियम है' और सबसे ज्यादा परिवर्तन आपको अपनी सोच में करने की जरूरत है.
अपनी परिवर्तित, निरंतर बेहतर होती सोच के साथ आप परिवार में खुद को परखते हैं कि वास्तव में आप हैं क्या?
किंतु इसका मतलब यह नहीं है कि आपका मस्तिष्क कोई राह चलता पत्थर है, जिसे आप ठोकर मारें और वह इधर-उधर लुढ़क जाए, बल्कि दृढ़ता के साथ आपका मस्तिष्क अपने विचारों रखता रहे और जहां आवश्यक लगे वहां परिवर्तन करें.
जब आप नोट्स बनाते हैं, और उसे लगातार संशोधित विचारों के साथ परखते रहते हैं, तो यह कार्य काफी आसान नज़र आने लगेगा.
ध्यान दीजिए, यह परिवर्तन सिर्फ क्षणिक संघर्षों से घबरा कर नहीं होना चाहिए, बल्कि क्षणिक परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए दीर्घकालीन प्रभाव पर आपकी दृष्टि स्थिर होनी चाहिए.
निश्चित रूप से चीजों का बदलना, यहां से शुरू हो जाता है.
4. लेसर एविल थ्योरी
(Lesser evil theory for The Life)
जो मैंने अपनी जिंदगी में अनुभव किया है और निश्चित रूप से यह हर किसी का ही अनुभव है कि 'पूरी तरह से सच और पूरी तरह से झूठ जैसी कोई चीज इस संसार में है ही नहीं!
पूरी तरह से अच्छा. और पूरी तरह से गंदा, ऐसा कुछ भी इस संसार में मौजूद नहीं है.
हमारे धर्म शास्त्रों में यह बात बड़े ही स्पष्ट ढंग से लिखी गई है, कि मनुष्य का निर्माण सात्विक, राजसी और तमस गुणों से हुआ है.
जाहिर है कि हर एक के भीतर इसकी कुछ ना कुछ मात्रा रहती ही है. स्वयं हमारे भीतर भी, आपके भीतर भी इसकी कितनी मात्राएं विराजमान हैं.
सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण क्या है, यह गूगल पर ढूंढ लें और गीता के माध्यम से इसके बारे में प्रमाणिक जानकारी ले सकते हैं.
पर इसका मतलब यही है कि आपको अपने जीवन में 'लेसर एविल थ्योरी' अडॉप्ट करना पड़ता है. मतलब कम बुरा क्या है, उसे चुनना पड़ता है.
जीवन में 90% आपको ऐसे निर्णय लेने पड़ेंगे, जब आपको दोनों तरफ कुछ न कुछ नुकसान दिखेगा. ऐसे में जब आपका खुद का दर्शन प्रबल होता है, तो आप डिसाइड कर पाते हैं कि कम नुकसान किस फैसले में है, ज्यादा फायदा किस निर्णय में है.
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ऐसे ही, आपके निर्णय से तत्कालिक फायदा क्या होगा, और दीर्घकालिक फायदा क्या होगा? नुक्सान की मात्रा क्या होगी ...
व्यक्तिगत फायदा क्या है, और सार्वजनिक फायदा क्या है...
ऐसे में आपको अक्सर ही बेहतरीन निर्णय लेने के लिए खुद को तैयार रखना चाहिए, जो कम बुरे निर्णय हों!
व्यक्तिगत फायदा व सार्वजनिक फायदे की बात को यहाँ और स्पष्ट ढंग से आपको समझने की ज़रुरत है.
कई बार एक अकेला व्यक्ति, अपने व्यक्तिगत फायदे के चक्कर में पूरे परिवार का नुकसान कर बैठता है, जबकि परिवार का नुकसान होने का मतलब, स्वयं उसका भी नुकसान होना है.
भारतीय संविधान में आपातकाल का जिक्र किया गया है. 1975 में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल लगाया गया था. हालांकि वह इमरजेंसी राजनीतिक कारणों से लगाई गयी थी, किंतु संविधान में जिस आपातकाल का जिक्र किया गया है, वह युद्ध की परिस्थितियों में, देश पर आयी वास्तविक आपदा की परिस्थितियों से है.
संविधान के अनुच्छेद 352 में साफ़ निहित है कि ‘युद्ध’ - ‘बाह्य आक्रमण’ या ‘सशस्त्र विद्रोह’ के कारण संपूर्ण भारत या इसके किसी हिस्से की सुरक्षा खतरें में हो, तो राष्ट्रपति राष्ट्रीय आपात की घोषणा की जा सकती है.
ऐसे समय में आपकी अपनी व्यक्तिगत संपत्ति कुछ भी नहीं रहती है. जो कुछ भी आपका है, वह देश की संपत्ति हो जाती है.
सीधे तौर पर देखने से यह लगेगा सरकार हमारा घर कैसे ले सकती है. सरकार हमारी संपत्ति, वाहन इत्यादि कैसे ज़ब्त कर सकती है, किंतु कल्पना कीजिए कि देश पर ही संकट आ जाए, तो आपकी अपनी संपत्ति का मतलब ही कहां रहेगा?
यह व्याख्या थोड़ी कानूनी हो गयी है, किन्तु आप उलझिए मत... लब्बोलुआब यही समझिये कि व्यक्तिगत हितों को थोड़ा पीछे रखकर चलना चाहिए. हालाँकि, आजकल के जमाने में स्वार्थ एक अत्यंत जटिल व्यवहार बन चुका है, किन्तु बावजूद इसके आपको थोड़ा आगे सोचने की आवश्यकता है.
अगर व्यक्तिगत स्वार्थ और सामाजिक स्वार्थ में आपको अंतर समझना है, तो आपको पंचतंत्र की कहानियों को खूब बेहतर ढंग से पढना-समझना चाहिए.
पं. विष्णु शर्मा की 'पंचतंत्र' बेहद सरल भाषा में आपको जीवन का सूत्र समझाती है.
भारतीय दर्शन में प्रमाणिक विदुर नीति में कहा गया है कि अगर परिवार की भलाई के लिए एक व्यक्ति का त्याग करना हो, तो वह कर देना चाहिए. एक गांव की भलाई के लिए एक परिवार का त्याग करना हो, तो उसे सहर्ष करना चाहिए. ऐसे ही एक राज्य की भलाई के लिए, देश की भलाई के लिए अलग-अलग त्याग बतलाए गए हैं.
यह सभी कहानियां / सिद्धांत 'लेसर एविल' कॉन्सेप्ट ही तो हैं.
इस पर बहुत सारी व्याख्याएं हैं, और जैसे-जैसे आप एक लीडर के तौर पर आगे बढ़ते हैं, आपको यह व्याख्या और भी स्पष्ट रूप में नजर आने लगती है.
शायद अभी यह पढ़ते में आसान ना लगे, थ्योरी ही लगे... किंतु जब आप एक-एक थ्योरी आजमाते जाएंगे तो आपका दिमाग बड़े से बड़ा निर्णय लेने में कुछ पल ही लगाएगा, और जीवन के कठिन से कठिन निर्णयों को आप चुटकी बजाते ले लेंगे.
उन निर्णयों से उत्पन्न हुए परिस्थिति को, बगैर दोष देते हुए आप सीखेंगे, समझेंगे. अपने लिए गए निर्णय से उत्पन्न हुए नुकसान को भी आप उसी भाव से अपनाएंगे, जैसे उसके लाभ को अपनाते!
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ह कोई जरुरी नहीं है कि प्रत्येक निर्णय में आपको लाभ ही लाभ मिलेगा, बल्कि कई निर्णयों में आपको नुकसान मिल सकता है, किंतु महत्वपूर्ण यह है कि आप अपनी ऊपर की तमाम बातों को समझते हुए 'बेहतरीन' निर्णय ले रहे हैं.
ऐसे में आप सिर्फ परिस्थिति के हवाले खुद को नहीं छोड़ते हैं...
हालांकि कई बार परिस्थिति के हवाले खुद को छोड़ना भी एक उत्तम रणनीति है, किंतु 99% मामलों में मनुष्य को निर्णय लेना ही चाहिए, और हकीकत देखी जाए तो 99% व्यक्ति अपने जीवन के तमाम निर्णय परिस्थितियों के हवाले कर देते हैं.
वह ना कोई निर्णय लेते हैं, ना किसी योग्य निर्णय को स्वीकार करते हैं, और उनकी यह प्रवृत्ति, स्वयं उनके भीतर कुंठा उत्पन्न कर देती है.
जब आप लेसर एविल कांसेप्ट को समझ लेते हैं, तो आपके लिए जीवन के संघर्षों से जुड़ना बड़ा आसान हो जाता है.
5. समाज
(Society and your life)
ऊपर के तमाम स्टेप्स को क्रम में फॉलो करने के बाद, जब आप समाज में एंट्री लेते हैं, तब तक आपकी उम्र 35 से 40 साल के आसपास हो चुकी होती है. जीवन के कई अध्यायों को आप एक हद तक समझ चुके होते हैं. बताई गयी यह उम्र किसी रिसर्च पर आधारित नहीं है, किंतु एवरेज रूप से देखा जाए, तो समाज में व्यक्ति इस समय एंट्री ले ही लेता है.
इस उम्र तक माता पिता के निर्णय से अलग उसके निर्णय होते हैं, उसके अपने बाल बच्चे हो चुके होते हैं, उसकी अपनी जैसी भी हो, थॉट प्रोसेस डेवलप हो चुकी होती है.
कल्पना कीजिए कि इस उम्र तक आते-आते अगर व्यक्ति ने ऊपर के स्टेप्स (Own Philosophy, Understanding your own mind, Family Behavior, Lesser Evil Theory) को फॉलो नहीं किया है, तो उसे कितनी कठिनाईयों का सामना करना पड़ेगा. अपने आसपास नजरें दौड़ाइए... अपने ऊपर नजरें दौड़ाइए, आप भी कहीं परिस्थितियों के हवाले तो नहीं हो चुके हैं?
जिस प्रकार मैदान में फुटबॉल टीमों के 22 खिलाड़ी, 1 गेंद को इधर-उधर फेंकते हैं, धकेलते हैं, वैसे ही आप इस समाज में लोगों द्वारा धकेले जाते हैं.
यह बात सुनकर डरिये मत, उत्साह कम मत कीजिए, इसका सलूशन आगे है... किंतु क्या यह सच नहीं है, कि जिस ऑफिस में आप काम करते हैं, उसी ऑफिस पॉलिटिक्स में फँस कर आप तनावग्रस्त हो जाते हैं, लगभग रोज ही यह तनाव बढ़ता जाता है.
जॉब छोड़ने से लेकर सैलरी बढ़ने और खर्चों की आपाधापी में आपका सारा उत्साह, सारा जीवन-आनंद दम तोड़ने लगता है.
इससे आगे निकलते हैं, तो जिस स्थान पर आप रहते हैं, उस कॉलोनी की पॉलिटिक्स के बारे में आपका अनुभव क्या कहता है?
आप गलत को गलत नहीं कह सकते हैं, क्योंकि लोग आपके विरोधी हो जाएंगे. पर, गलत को गलत नहीं कहने से आपके मन के भीतर जो ग्लानि उत्पन्न होती है, वह नरक यातना से कम होती है क्या?
सरकार, प्रशासन, करप्शन, ट्रैफिक, लड़ाई - झगड़ा, एक दूसरे को देखकर उत्पन्न होने वाली महत्वाकांक्षा - जलन - कुंठा, जीवन की पल-पल बढ़ती रफ्तार आप को बीमार कर देती है, बहुत बीमार!
बीमार... बहुत बीमार से एक विज्ञापन याद आ गया...
टीबी की बिमारी का विज्ञापन तो आपने देखा ही होगा कि किस तरह से वह फेफड़े को खोखला कर देती है.
कुछ ऐसे ही आपका पूरा व्यक्तित्व खोखला होता चला जाता है...
वहीं अगर ऊपर के स्टेप्स आपने अडॉप्ट कर लिया है, मतलब आपका अपना दर्शन आपके हिसाब से विकसित है, आप अपने दिमाग को समझते हैं, परिवार में ठीक ढंग से डील कर पाते हैं, खुद में बदलाव ला पाते हैं, मतलब लेसर एविल थ्योरी को समझते हुए निर्णय ले पाते हैं, तो समाज में चलना आपके लिए आसान हो जाता है.
समाज की बुराई को भी आप तार्किक ढंग से लेते हैं, उसका हल पॉजिटिव सोच के साथ निकालते हैं, तो उसकी अच्छाई को आप उतने ही उत्साह से स्वीकारते हैं, और खुद को सफल बनाते जाते हैं.
हां... हां... हां... ऊपर की बातों से एक प्रश्न आपके मन में जरूर दौड़ रहा होगा कि 35 साल तक तो लोगों को यह सब समझ में ही नहीं आता कि दार्शनिक कैसे बने? खुद के दिमाग को कैसे समझें, थ्योरी, प्रैक्टिकल, परिवार, तो फिर वह अब क्या करें?
मित्रों, यह आदर्श स्थिति है.
आप अगर बचपन से ही यह सारा काम कर रहे होते तो आप मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम नहीं हो जाते?
हर परिस्थिति जब अनुकूल होती है, हर डिसीजन जब दुरुस्त होता है, तब तो मनुष्य भगवान ही बन जाता है, किंतु हम इंसान हैं, और आपको यहां पर भी लेसर एविल थ्योरी अडॉप्ट करनी चाहिए. ]
'जब जागो तभी सवेरा'...
मतलब ऊपर से सारी प्रक्रिया आज ही से अपनाना शुरू करें, फिर से स्टार्ट कीजिए!
हां आपको उतनी आदर्श स्थिति नहीं मिलेगी, उतना समय नहीं मिलेगा, किंतु आप किसी भी प्रक्रिया को छोड़ नहीं सकते हैं. एक भी स्टेप को छोड़ा, तो समस्या निश्चित तौर पर अनसुलझी रह जाएगी.
यह बेहद आसान है...
हाँ! बेहद आसान... ...
प्रत्येक दिन आधे घंटे से भी कम समय आपको देना पड़ेगा.
शुरुआत में यह आपको थोड़ा उलझाऊ जरूर लगेगा, किंतु 24 घंटे में से 23 घंटे 45 मिनट आप जो करते हैं, करते रहिए... मात्र 15 मिनट आप ऊपर से प्रक्रिया को अपनाते हुए थॉट प्रोसेस को नोट कीजिए, अपने माइंड को समझिये, परिवार में उन प्रोसेस को अप्लाई कीजिये, लेसर ईविल थ्योरी के हिसाब से थोड़ा बहुत जो भी सामाजिक स्ट्रगल सामने आये, उसे हैंडल कीजिए.
अब आप महसूस करने लगेंगे कि सफलता रुपी आपकी गाड़ी बढ़ चली है...
......
...
उपरोक्त व्याख्या से जुड़े कुछ टर्म्स जाना महत्वपूर्ण है. इन पॉइंट्स को लेकर आपको कन्फ्यूजन हो सकती है, इसलिए इन्हें अवश्य समझें...
सफलता, महत्वाकांक्षा व प्रेरणा में अंतर (difference between success, ambition and inspiration)
कल आप जो सोचते थे, कल आपने जो किया, उससे थोड़ा भी बेहतर अगर आज आपने सोचा, आज आपने किया तो यह सफलता है. ध्यान रहे, यह संसार-ब्रह्माण्ड अनंत है, इसलिए सफलता हमेशा खुद से तुलना करने का नाम है.
वहीं महत्वाकांक्षा दूसरों से तुलना करने का नाम है. इसीलिए महत्वाकांक्षा को एक स्तर पर नकारात्मक शब्द भी माना जाता है. हालांकि यह उतना नकारात्मक भी नहीं है.
यहां पर महत्वाकांक्षा और प्रेरणा दो शब्द आते हैं. महत्वाकांक्षा में आप दूसरों से तुलना करके खुद को व्यथित करते हैं, दुखी करते हैं, और बगैर हालात को समझें किसी चीज की इच्छा करते हैं. वहीं प्रेरणा में भी आप बड़ी चीज पाने की इच्छा जरूर रखते हैं, किंतु हालात को ध्यान रखते हैं, और खुद को बेहतर करते हैं, दूसरों से बगैर दुखी हुए उनसे सीखने को उद्यत होते हैं. महत्वाकांक्षा आपके भीतर कहीं ना कहीं कुंठा उत्पन्न करती है, जबकि प्रेरणा आपके भीतर आत्मविश्वास उत्पन्न करती है.
ध्यान से समझते जाइए!
यह सब एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. कोई दिक्कत हो तो कमेंट कर दीजिए, मुझे व्हाट्सएप कर दीजिए, खुद के दिमाग में RTI लगाइए. अरे भाई 'राइट टू इनफार्मेशन' का सबसे बड़ा सोर्स तो स्वयं आपका मस्तिष्क है, आपका हृदय है. कभी इस अधिकार का प्रयोग करें और देखें आपको हल मिलता है कि नहीं मिलता.
थ्योरी वर्सेज प्रैक्टिकल (Theory vs Practical in Life)
ध्यान रखिए, तमाम लोग आपको ऐसे मिल जाएंगे जिनकी जिंदगी में अनुभव बहुत बड़ा होता है. उन्होंने खूब प्रैक्टिकल किया होता है, पर कहीं न कहीं 'थ्योरी' समझने में वह कच्चे निकलते हैं.
ज़रा सोचिये, अगर थ्योरी का उतना महत्व नहीं है, तो एक बच्चे को छोटी उम्र से उसके जीवन की एक चौथाई उम्र, स्कूली शिक्षा - कॉलेज की शिक्षा में क्यों गुजरती है?
वहां वह थ्योरी ही तो सीखता है?
इसीलिए अपने जीवन की थ्योरी, अपने जीवन का दर्शन क्लियर होना आपके लिए बेहद आवश्यक है. वास्तव में जिन महान लोगों ने अपनी लाइफ में प्रैक्टिकल किया होता है, अनुभवों से सीखा होता है, खोज की होती है, उसी को तो थ्योरी रूप में संकलित किया है.
अच्छी बुक्स, पुराने प्रमाणिक धर्म शास्त्र, बड़े लोगों की बातें यह सब उनके अनुभवों से ही तो निकल कर आया है, जो उन्होंने अपने जीवन में अर्जित की है, और यह अनुभव आपके लिए आज थ्योरी हैं.
आप चाहे जो आज सीख रहे हैं, उसे अपनी अगली पीढ़ी को, खुद से संबंधित लोगों को जब बताएंगे, तो यह उनके लिए थ्योरी ही तो होगी.
हाँ! यह भी सच है कि कितनी भी बेहतर क्यों न हो, किन्तु सिर्फ थ्योरी किसी के भी जीवन में 100% रोल नहीं प्ले कर सकती, किंतु उसके जीवन में सकारात्मक बदलाव लाने में बड़ी सहायता तो अवश्य ही कर सकती है.
अगर आप थ्योरी को समग्र रूप में समझते हैं, तो यह आपके जीवन के 50% से अधिक हिस्से को प्रभावित करती है, किंतु विडंबना यह है कि जब स्कूल में, कॉलेज में बच्चे पढ़ते हैं, तो उन्हें हंड्रेड परसेंट थ्योरी ही समझाई जाती है, जबकि उसे प्रैक्टिकल भी कराया जाना चाहिए. ठीक वैसे, जैसे जापान इत्यादि विकसित देशों में होता है.
लेकिन यह इतनी महत्वपूर्ण बात नहीं है, बल्कि इस लेख में आपके लिए जो ज्यादा महत्वपूर्ण बात है, वह यह है कि आप अपना जीवन जीते हैं, तो हंड्रेड परसेंट प्रैक्टिकल और अनुभव के ऊपर ही न जियें.
अरे भई! अनुभव तो सिर्फ आपका ही है न... वह बेहद सीमित है, किन्तु दुनिया बहुत बड़ी है और ऐसे में थ्योरी पढ़ना, समझना, अप्लाई करना आवश्यक है.
जैसे बच्चे को थ्योरी के साथ-साथ प्रैक्टिकल कराया जाना चाहिए, वैसे आप चाहे जितना भी प्रेक्टिकल अनुभव रखते हैं, थ्योरी पर भी अवश्य ध्यान दें. नोट जरूर करें अपने मस्तिष्क को नियंत्रित करने की प्रक्रिया जारी रखें. यह न सोचें कि अब तो आप सब जानते ही हैं, पढने या सुनने में मेहनत करना भला क्या ज़रूरी है!
संतुलन जरूरी है (Balance in Life is important)
जी हां! दुनिया में संतुलन के बिना कुछ भी मुमकिन नहीं है. आप चाहे जो सोचते हैं, चाहे जो करना चाहते हैं, किंतु आप एक चीज के लिए बाकी चीजों को रोक नहीं सकते.
कल्पना कीजिए कि आप एक बेहद सुंदर किताब पढ़ रहे हैं, किंतु आपके बच्चों के खेलने का समय हो गया है. उनकी साथ में खेलने की जिद भी शुरू हो गयी है, उधर किताब का ऐसा अध्याय आपके सामने खुला है, जो बेहद रोचक है.
यहाँ आपको अपनी किताब को बंद करके अपने उत्साह को होल्ड करना चाहिए, उसे आगे के लिए सिड्यूल करना चाहिए और अपने बच्चों के साथ खेलने जाना चाहिए. संतुलन की यही परिभाषा है. अपने उत्साह को अपनी चाहत को न मारिए, ना उसे इतना समय दीजिए कि अन्य चीजें असंतुलित हो जाएँ.
इस प्रक्रिया को निरंतर जारी रखिए.
अब आप सफलता को वैसे ही एंजॉय करेंगे, जैसे एक सफल दांपत्य जीवन में पति पत्नी हर सुख को एंजॉय करते हैं.
ध्यान रहे, जीवन की तमाम चुनौतियों के बीच में भी खुश रहना - प्रसन्न रहना - आनंदित रहना, हर रोज आनंदित रहना आवश्यक है.
इसका कोई निश्चित पैमाना नहीं है, किंतु आनंद अपने आप में एक पैमाना है.
आप उदास रह कर, दुखी रह कर, और असंतोष से भरकर अपने जीवन को कतई सफल नहीं कर सकते हैं. चूंकि सफलता कोई एक वस्तु नहीं है, जिसे एक बार प्राप्त करके यात्रा समाप्त कर दी जाए, बल्कि यह प्रत्येक दिन, प्रत्येक क्षण प्राप्त किया जाने वाला आनंद है. एक सुखद अनुभूति का नाम है 'सफलता'!
ऊपर बतायी गये पॉइंट्स के अलावा भी बहुत सारे ऐसे फैक्टर हैं, जो आपके जीवन को प्रभावित करते हैं. दोस्ती उनमें से बेहद महत्वपूर्ण फैक्टर है, खासकर आज के तकनीकी युग में दोस्ती की परिभाषा काफी बदल गयी है.
दोस्ती के साथ, समय की पहचान और उसका बेहतरीन उपयोग आपको पहचानना चाहिए.
इसके साथ सुनने - बोलने - समझने की स्किल को आप लगातार किस प्रकार से निखार सकते हैं, अपने और अपनों की ट्रेनिंग किस प्रकार से बेटर कर सकते हैं, इन सभी पॉइंट्स के प्रति आपको लगातार सजग रहना आवश्यक होता है.
इन विषयों पर मिथिलेश 'अनभिज्ञ' के नाम से जीवन के अनुभवों को मैंने ई-बुक के माध्यम में, एक जगह मैंने कलेक्ट किया है, किंतु यह मुफ्त नहीं है.
यह शुद्ध व्यवसायिक भी नहीं है, और ना ही इसका कोई इरादा है, बल्कि आप खुद के भीतर सुधार हेतु कितने गंभीर हैं, आपके भीतर कितनी इच्छा है सफलता की, आप अपने जीवन को सकारात्मक ढंग से कितना बदलना चाहते हैं, इसके लिए मात्र ₹21 इसकी फीस रखी गयी है.
मुझे ऑनलाइन ₹21 भेज कर व्हाट्सएप (+91- 99900 89080) पर पीडीएफ फाइल मंगा सकते हैं.
इन विषयों पर मिथिलेश 'अनभिज्ञ' के नाम से जीवन के अनुभवों को आप मेरे फेसबुक वॉल पर स्क्रॉल कर सकते हैं. या फ्री है.
व्यक्ति, परिवार, समाज, जीवन के अनुभवों को लेकर एक सक्रीय कम्युनिटी बनाने की प्रक्रिया जल्द ही शुरू की जाएगी, और यह प्रयत्न रहेगा कि प्रत्येक सप्ताह 40 मिनट का एक जूम सेशन रखा जाए.
इस सेशन में आप मेरे साथ, अपने जीवन के वास्तविक संघर्षों को डिस्कस कर सकते हैं, सीख सकते हैं. आपके कई प्रश्नों के उत्तर स्वयं आपके पास ही हैं, और मेरा प्रयत्न, आपको उन पॉइंट्स को ढूँढने, सही कॉन्टेक्स्ट में पहचानने में सहायता भर करना है.
कई प्रश्नों के उत्तर मैं देने की कोशिश करूंगा, तो कई प्रश्नों के उत्तर हम मिलकर ढूंढ लेंगे. कई अनसुलझे प्रश्न को सुलझाने के लिए हम इंतजार भी करेंगे.
समय देने के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद.
इतना पढने में समय दिया है आपने तो कमेन्ट-बॉक्स में अपने विचार अवश्य बताएं.
(मिथिलेश लेखन से पहले IT Consultant हैं. तकनीक के साथ-साथ परिवार - समाज के मुद्दों पर शोध , विचारों के क्रियान्वयन में लगे रहते हैं)
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