आपातकाल: इस 'दिन' को क्यों याद रखना ज़रूरी है?

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आपातकाल: इस 'दिन' को क्यों याद रखना ज़रूरी है?

  • उस काल में अनेक स्थानों पर वृद्धों तथा अविवाहित युवकों की जबरन नसबंदी का परिणाम है कि बाद की किसी सरकार में जनसंख्या वृद्धि रोकने के तरीकों पर विचार तक नहीं किया
  • आपातकाल में प्रशासन और पुलिस के उत्पीड़न की असंख्य कहानियां हैं। पार्क में प्रातः व्यायाम करने वालों को संघी घोषित कर जेल भेजा गया, तो...

Emergency Period in India, Hindi Content at Article Pedia

लेखक: डॉ. विनोद बब्बर (Dr. Vinod Babbar)
Published on 27 Jun 2021 (Update: 27 Jun 2021, 9:01 AM IST)

लोकतंत्र के हित में हर सजग भारतीय को जून, 1975 स्मरण रहना चाहिए। 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का रायबरेली से चुनाव अवैध घोषित करते हुए उन्हें छह साल तक चुनाव लड़ने के अयोग्य करार दिया था। उस समय लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में छात्र आंदोलन चरम पर था। 

25 जून, 1975 दिल्ली के रामलीला मैदान की रैली को असफल बनाने के लिए सरकार ने उस रविवार टीवी पर एक बहुचर्चित फिल्म प्रदर्शित करने की घोषणा भी की। लेकिन रैली अभूतपूर्व रही, जो जबरदस्त जनाक्रोश का प्रकटीकरण था। 

विपक्ष एकजुट हो इंदिरा जी से त्यागपत्र की मांग कर रहा था। लेकिन सत्तारूढ़ दल के अध्यक्ष और अन्य चाटुकार ‘इंडिया इज इंदिरा, इंदिरा इज इंडिया’ का नारा बुलंद कर रहे थे। 

इसीलिए लोकतंत्र में 'आस्था' दिखाते हुए इंदिराजी ने अपनी कुर्सी बचाने के लिए 25 जून, 1975 की आधी रात को मंत्रिमंडल की मंजूरी के बिना देश में आपातकाल घोषित करा दिया। विपक्ष के सभी बड़े नेता जेलों में डाल दिये गये। देश भर के असंख्य राजनैतिक कार्यकर्ता 'मीसा - कानून' के तहत जेल भेज दिये गये। 

आज जो लोग दिन भर मीडिया से सोशल मीडिया तक सरकार और उसके नेता के बारे में कुछ भी कहते हुए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध तथा अघोषित आपातकाल का राग अलापते हैं, उन्हें लोकतंत्र की देवी द्वारा प्रेस पर लादे सेंसरशिप से आंखें मूंदे रखना प्रतिकर लगता है। 
तब सेंसर अधिकारी की अनुमति के बाद ही कोई समाचार छप सकता था। सरकार विरोधी समाचार छापने पर गिरफ्तारी होती थी। पंजाब केसरी से इंडियन एक्सप्रेस तक कई समाचार पत्रों का प्रकाशन रोकने के लिए बिजली काट दी गई। पुणे के ‘साधना’ और अहमदाबाद के ‘भूमिपुत्र’ पर मुकदमे लादे गये, तो बड़ोदरा के ‘भूमिपुत्र’ के संपादक को गिरफ्तार कर लिया गया। कई अन्य पत्रकारों को भी मीसा और डीआईआर के तहत गिरफ्तार किया गया था। 

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आपातकाल में प्रशासन और पुलिस केे उत्पीड़न की असंख्य कहानियां हैं। पार्क में प्रातः व्यायाम करने वालों को संघी घोषित कर जेल भेजा गया, तो देश की राजधानी में बस स्टैंड पर बस सेवा के बारे में अपनी राय व्यक्त करने वाले संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान को उनके घर से हथकड़ी लगाकर जेल भेज दिया गया। जिस  क्षेत्र में माननीया का पोस्टर बेशक हवा से ही हट जाता, क्षेत्र के अधिकारी की जान सांसत में आ जाती थी।

लोकतंत्र के उस प्रहसन में अव्यस्क किशोर तक जेल की चार दिवारी के भीतर सिसकते नजर आये। गिरफ्तारी और उन्हें कहां रखा गया है, इसकी सूचना उनके रिश्तेदारों, मित्रों और सहयोगियों को नहीं दी जाती थी। बंदियों को तंग करने, उनको कोठरी में अकेले रखने, इलाज न कराने आदि के हजाऱों मामले बाद में शाह आयोग के सामने आये।

पिछले दिनों देशद्रोह के मामले में गिरफ्तार एक महिला जिसे बाद में जमानत दे दी गई, के लिए छाती पीटने वाले उस सरकार के बगलगीर रह चुके हैं, जिसने जयपुर की महारानी गायत्री देवी और ग्वालियर की राजमाता विजयाराजे सिंधिया को असामाजिक और बीमार बंदियों के साथ रखा। मृणाल गोरे, दुर्गा भागवत को पागलों के बीच रखा। तब राजनैतिक महिला बंदियों के साथ दुर्व्यवहार और गंदे मजाक किये जाते थे।

जोे कार्यकर्ता प्रचार सामग्री तैयार करते, और बांटते, अथवा जेल गये कार्यकर्ताओं के परिवारों से सम्पर्क करते उन पर पुलिस अत्याचार आम बात थी। उनसे सत्याग्रहियों और भूमिगत कार्यकर्ताओं के ठिकानें और उनकी गतिविधियों के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए उन्हें अमानवीय यातनाएं दी जाती थीं। उस तानाशाही का दमनचक्र छात्रों से मजदूरों तक सभी पर चला। अनुशासित करने के नाम पर नागरिक अधिकारों का हनन किया गया। 


हर तरफ एक खास किस्म के आतंक का वातावरण बना ‘लोकतंत्र की देवी और युवराज’ की जय - जयकार का चलन आरंभ किया गया। बिना किसी संवैधानिक दायित्व के युवराज का शासन पर नियंत्रण था। आपातकाल में जहां संवैधानिक मर्यादाओं को तार-तार किया गया, वहीं युवराज के इशारे पर परिवार नियोजन अभियान को बदनाम कर उसे गहरी चोट पहुंचाई गयी। उस काल में अनेक स्थानों पर वृद्धों तथा अविवाहित युवकों की जबरन नसबंदी का परिणाम है कि बाद की किसी सरकार में जनसंख्या वृद्धि रोकने के तरीकों पर विचार तक नहीं किया।

आज किसी भी दल से सहमति अथवा असहमति हो सकती है, लेकिन उस दौर के तथाकथित नायकों के कारनामों को याद रखना चाहिए, जिन्होंने अपने प्रभुत्व को कायम रखने के लिए संविधान में मनमाने परिवर्तन किए तथा लोकतंत्र को धता बताते हुए विपक्षी ही नहीं, अपने दल के लोकतंत्र समर्थक नेताओं को भी सींखचों के पीछे रखा। 

न जाने क्यों उनके उत्तराधिकारियों को आज भी योग्य को नेतृत्व सौंपना नहीं सुहाता। स्वतंत्र विचार रखने पर अपने राष्ट्रीय प्रवक्ता तक को बाहर का रास्ता दिखाना यदि कोई संकेत है, तो लगता नहीं कि आपातकाल के लिए जिम्मेवार परिवार की तानाशाही सोच बदली है। 


आज और उस काल की परिस्थितियों की तुलना ईमानदारी से होनी चाहिए। आज देश के प्रधानमंत्री के बारे में अशालीन टिप्पणी करने वाले अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता न होने का राग अलापते हैं। टीवी चैनलों पर अनाप - शनाप चर्चा, मनमाने विश्लेषण, एजेंडा पत्रकारिता चलाने वाले प्रेस की आजादी न होने पर घडियाली आंसू बहाते हैं।

आज की पीढ़ी को आपातकाल के नाम पर लोकतंत्र को बंधक बनाने वालों के चेहरे दिखाने की आवश्यकता है। कभी नेहरु जी ने संसद में डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी को कहा था - we will crush you. तब लोकतंत्र के निडर सिपाही डॉ. मुखर्जी ने उन्हें उत्तर देते हुए कहा था -We will crush your crushing mentality. 

नेहरू जी से इंदिरा जी और उसके बाद भी तानाशाही अर्थात crushing मानसिकता को इस देश की जनता crush कर रही है! आज का दिवस हम सबको सजग रहकर ऐसी शक्तियों का मुकाबला करने का संदेश देता है।

(लेखक डॉ. विनोद बब्बर की , अनेक विधाओं में, दर्जन भर से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, तो उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा विशेष हिंदी सम्मान प्राप्त हो चुका है. राष्ट्र किंकर पत्रिका के माध्यम से डेढ़ दशक से भी अधिक समय से आप राष्ट्र निर्माण - संस्कार निर्माण में समर्पित हैं.)



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